Tuesday, December 15, 2015

:ः सहिष्णुता:ः

   :ः सहिष्णुता:ः

           

             सहिष्णुता एक शक्ति है जिसका शाब्दिक अर्थ सहन करने की शक्ति, क्षमा करने की शक्ति, सहारा देने की शक्ति है। इस प्रकार यह एक ऐसा मानवीय गुण है जो व्यक्ति, संस्था, समाज में पाया जाता है। जिसमें अहिंसा, परोपकार, नेकी आदि शामिल हैं।
            सहिष्णुता मानवीय आचरण से संबंधित एक शक्तिशाली गुण है। लेकिन जब इसे धर्म, जाति, राजनीति से जोड़ा गया है, तब इसका रूप बदल गया है और यह असहनशील, अनुदारता, असहनीय व्यवहार, किसी बात को सुनने समझने की शक्ति न होना, अपने से विपरीत विचारों को समझने की क्षमता न होना और विचारों की भिन्नता को स्वीकार न करने से वह आचरण असहिष्णुता कहलाने लगा है।

        अंग्रेजी में टालरेंस का शाब्दिक अर्थ सहिष्णुता बताया जा रहा है और इनटालरेंस को असहिष्णुता बताया जा रहा है। इसमें जब एक वर्ग देशभक्ति, आतंकवाद विरोधी बातें करता है तो दूसरे वर्ग के लिये वह बात  असहिष्णुता की श्रेणी में आ जाती है और जब एक वर्ग असमानता, वर्ग विभेद, जाति भेदभाव का विरोध करता है तो दूसरे वर्ग के लिये वह असहिष्णुता हो जाती है। इस प्रकार यह एक विचारों की भिन्नता है जिसे आपस में बैठकर सुलझाया जा सकता है।

        लेकिन इन सब असमानताओं के बाद भी देशभक्ति, आतंकवाद, जातिभेद, वर्ग विभेद, राष्ट्र भक्ति जैसे शब्दों के शाब्दिक अर्थ धर्म, जाति, राजनीति से बदल नहीं सकते हैं और इनकी आड़ में समाज कितने भी अर्थ-अनर्थ लगाये इन शब्दों से जुड़ी बातों को असहिष्णुता नहीं माना जा सकता है। जो व्यक्ति इनके समर्थन में है वह सहिष्णुता की समझ नहीं रखता है और जो व्यक्ति इनके विरोध में वह सहिष्णुता की समक्ष रखता है, यह माना जा सकता है।

        इसलिये सहिष्णुता को किसी जाति, धर्म, भाषा, राजनीतिक दल, संस्था, सरकार से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिये बल्कि इसे मानवीय दृष्टिकोण से ही देखा जाना चाहिये। एक जाति के लिये आरक्षण  सहिष्णुता तो दूसरी जाति के लिये वह  असहिष्णुता हो सकता है। इसी प्रकार देशभक्ति एक वर्ग के लिये  सहिष्णुता तो आतंकवाद उसके लिये  असहिष्णुता हो सकता है। लेकिन इससे देशभक्ति और आतंकवाद के अर्थ बदल नहीं सकते। जिसे आज वो धर्म, भाषा, जाति, राजनीति से जोड़कर बदलना चाहते हैं। इसलिये एक बात जो एक वर्ग के लिये सहिष्णुता वही बात दूसरे वर्ग के लिये असहिष्णुता की श्रेणी में आ रही है।

            कुल मिलाकर अपने खिलाफ हो रही बातों को सहन न करने की शक्ति को असहिष्णुता माना जा रहा है। जबकि वह बातें देश, समाज, धर्म और वर्ग से जुड़ी होने के कारण  सहिष्णुता की श्रेणी में आती हैं। जिन्हें सोचने, समझने और उनमें सुधार करने की जरूरत है।

Wednesday, November 25, 2015

सहिष्णुता

                                                                       :ः सहिष्णुता:ः

           

             सहिष्णुता एक शक्ति है जिसका शाब्दिक अर्थ सहन करने की शक्ति, क्षमा करने की शक्ति, सहारा देने की शक्ति है। इस प्रकार यह एक ऐसा मानवीय गुण है जो व्यक्ति, संस्था, समाज में पाया जाता है। जिसमें अहिंसा, परोपकार, नेकी आदि शामिल हैं।
            सहिष्णुता मानवीय आचरण से संबंधित एक शक्तिशाली गुण है। लेकिन जब इसे धर्म, जाति, राजनीति से जोड़ा गया है, तब इसका रूप बदल गया है और यह असहनशील, अनुदारता, असहनीय व्यवहार, किसी बात को सुनने समझने की शक्ति न होना, अपने से विपरीत विचारों को समझने की क्षमता न होना और विचारों की भिन्नता को स्वीकार न करने से वह आचरण असहिष्णुता कहलाने लगा है।

        अंग्रेजी में टालरेंस का शाब्दिक अर्थ सहिष्णुता बताया जा रहा है और इनटालरेंस को असहिष्णुता बताया जा रहा है। इसमें जब एक वर्ग देशभक्ति, आतंकवाद विरोधी बातें करता है तो दूसरे वर्ग के लिये वह बात  असहिष्णुता की श्रेणी में आ जाती है और जब एक वर्ग असमानता, वर्ग विभेद, जाति भेदभाव का विरोध करता है तो दूसरे वर्ग के लिये वह असहिष्णुता हो जाती है। इस प्रकार यह एक विचारों की भिन्नता है जिसे आपस में बैठकर सुलझाया जा सकता है।

        लेकिन इन सब असमानताओं के बाद भी देशभक्ति, आतंकवाद, जातिभेद, वर्ग विभेद, राष्ट्र भक्ति जैसे शब्दों के शाब्दिक अर्थ धर्म, जाति, राजनीति से बदल नहीं सकते हैं और इनकी आड़ में समाज कितने भी अर्थ-अनर्थ लगाये इन शब्दों से जुड़ी बातों को असहिष्णुता नहीं माना जा सकता है। जो व्यक्ति इनके समर्थन में है वह सहिष्णुता की समझ नहीं रखता है और जो व्यक्ति इनके विरोध में वह सहिष्णुता की समक्ष रखता है, यह माना जा सकता है।

        इसलिये सहिष्णुता को किसी जाति, धर्म, भाषा, राजनीतिक दल, संस्था, सरकार से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिये बल्कि इसे मानवीय दृष्टिकोण से ही देखा जाना चाहिये। एक जाति के लिये आरक्षण  सहिष्णुता तो दूसरी जाति के लिये वह  असहिष्णुता हो सकता है। इसी प्रकार देशभक्ति एक वर्ग के लिये  सहिष्णुता तो आतंकवाद उसके लिये  असहिष्णुता हो सकता है। लेकिन इससे देशभक्ति और आतंकवाद के अर्थ बदल नहीं सकते। जिसे आज वो धर्म, भाषा, जाति, राजनीति से जोड़कर बदलना चाहते हैं। इसलिये एक बात जो एक वर्ग के लिये सहिष्णुता वही बात दूसरे वर्ग के लिये असहिष्णुता की श्रेणी में आ रही है।

            कुल मिलाकर अपने खिलाफ हो रही बातों को सहन न करने की शक्ति को असहिष्णुता माना जा रहा है। जबकि वह बातें देश, समाज, धर्म और वर्ग से जुड़ी होने के कारण  सहिष्णुता की श्रेणी में आती हैं। जिन्हें सोचने, समझने और उनमें सुधार करने की जरूरत है।


Monday, September 29, 2014

शौंचालय और स्वास्थ्य

                          शौंचालय और स्वास्थ्य

                        हमारे देश के सार्वजनिक शौंचालय हमारे स्वास्थ्य व स्वच्छता के प्रति हमारी सोच व मानसिकता को दर्शाते हैं। गंदगी से भरे, बीमारियों के ढेर, बुरी तरह बसाते, मक्खियो मच्छरों से सने, बज-बजाते, शौचालय हमारे अस्वस्थ मानसिकता को दर्शाते हैंऔर यह प्रदर्शित करते हैं कि खुले में शैाच करना हमारी वंशानुगत बीमारी है । जिससे हमें निजात पाना होगा। 

        यही कारण है कि अपने पूर्व
जों को याद करते हुये कहीं भी खड़े होकर अपनी लघुशंका मिटा
लेते हैं और जहाॅ पानी देखते हैं वहाॅ अपनी बड़ी शंका का समाधान कर लेते हैं। हमें किसी भी सार्वजनिक स्थान पर जब खुले आम लघु शंका करने में दिक्कत नहीं होती है तोगांव देहात में दिशा मैदान जाना फेशन है। घर में सुविधा होते हुये भी लोग नहीं जाते हैं और यही कारण है कि धन-धान्य से सम्पन्न होने के बावजूद भी अपने घरों को इसके लायक नहीं बनाते। 


        यदि सरकार के द्वारा यह सुविधा कहीं यदि उपलब्ध कराई जाती है तो उसे भी गन्दा कर नष्ट कर देते हैं और अच्छा काम न करेंगे और न करने देंगे वाले भले मानस की तरह कार्य करते हैं। इसी कारण इस देश की 67 प्रतिशत से अधिक आबादी खुले में शौंच का आनंद ले रही है जिसे अपने धार्मिक अंधविश्वासों से जोड़कर इस प्रथा को और बढ़ावा दिया जा रहा है। 


        हजारों साल पुरानी यह परम्परागत प्रथा उस समय थी जब  घनी आबादी नहीं थी । लोग जंगलों में रहा करते थे। गांव देहात में पानी की व्यवस्था नहीथी। अधिकांश गांव की आबादी नदी तालाब नाले से पानी लेने जाती थी और वहीं पर कपड़े धाने नहाने आदि पानी सम्बन्धी कार्य के साथ इस कार्य को भी किया जाता था। 



        लेकिन आज परिस्थिति बदल गई है। घर घर गांव-गांव पानी बिजली उपलब्ध है। गांव की घनी आबादी हो गई है।  जंगल कटकर समाप्त हो गये हैं। ऐसे माहौल में पुरानी व्यवस्था के अनुसार खुले में शौंच करना अपराध को जन्म दे रहा है और इसी कारण 70 प्रतिशत महिलाओं के साथ यौन हमले सम्बन्धी अपराध घटित हो रहे हैं। लेकिन इसके बाद भी हम अपनी पुरानी व्यवस्था में परिवर्तन करने तैयार नहीं है। 


        सरकार के द्वारा निर्मल भारत अभियान एवं ग्रामीण स्वास्थ्य योजना के अन्तर्गत करोड़ों रूपये इस व्यवस्था को समाप्त करने में खर्च किये जा चुके हैं लेकिन हमारे द्वारा इस व्यवस्था को जानबूझकर नहींअपनाया जा रहा है और शासकीय कार्य में असहयोग प्रदान कर निर्मल भारत योजना को असफल किया जा रहा है।

दिशा मैदान और तीर कमान उमेश कुमार गुप्ता

                                  व्यंग्य
                     दिशा मैदान और तीर कमान
                                              
                     हमारे देश में दिशा मैदान और तीर कमान का चोली दामन का साथ है। जब भी पेट दर्द करे तो पहले तीर चलाये उसके बाद जहाॅ पर तीर गिरे वहाॅ गड्ढा खोदें। अपना वजन कम करें उसके बाद गड्ढे में मिट्टी  घास फूंस डालकर उसे हाइजैनिक तरीके से ढककर आ जायें । 


        ऐसा करने से आपके पूर्वज खुश हो जाएंगे। हजारों साल पुरानी पौराणिक शौच कर्म काण्ड की कथा पूर्ण हो जायेगी और आपको प्रत्येक दिन ऐसा करने से इस जन्म के बाद मोक्ष प्राप्त होगा। 


        भले ही आप खुले में शौच करने से जीते जी डायरिया मलेरिया, टायफाइड, डेंगू से मर जाये लेकिन मोक्ष के चक्कर में अपने घर में न तो शौचालय बनवाये न ही शौंच करने जाये । 


    हमारे देश में 50प्रतिशत से अधिक आबादी इसी पौराणिक क्रियाकर्म पर चल रही है। देश को आजाद हुये 67 साल से ज्यादा का समय हो गया है । लेकिन उसके बाद ही उतने ही प्रतिशत लोग खुले में शौंच का आनंद ले रहे हैं।


     देश के गांव में तो शत-प्रतिशत आबादी खुली हवा में जानवरों की तरह मलमूत्र त्यागने की आदी है ही, लेकिन शहरी बाबू भी इनसे कम नहीं हैं । सुबह-सुबह प्रभाकर के पर्दापण के साथ ही वे भी आसपास की नदी नाले पोखर को शुद्ध कर आते हैं।

 
                         हम निर्मल भारत नहीं बनाना चाहते। लाखों का मकान गांव में बनवाएंगे, करोंड़ो के स्कूल, अस्पताल, काॅलेज, शहर में बनवाएंगे, लेकिन अलग से कभी भी पर्याप्त संख्या मंें शौचालय नहीं बनवाएंगे और यदि दो-चार बना भी दिये जाते हैं तो, अलग से एक भी महिला शौचालय नहीं बनाया जाता है। 


    हमारे देश में स्त्री को अपने परिवार की इज्जत, नाक, मूंछ माना जाता है। लेकिन उसके शौच की कोई व्यवस्था घर में नहीं की जाती है। उसकी इज्जत के लिये खून बहा दिया जायेगा, लेकिन घर में शौचालय नहीं बनवाएंगे। उसके विवाह में लाखों का दहेज देने की योजना पैदा होते ही बना लेंगे, लेकिन उसके शौचालय की व्यवस्था घर में नहीं करते हैं।

 
        यही कारण है कि हमारी इस पुरातनी व्यवस्था के कारण घर की इज्जत के साथ खुले में शौंच करने के कारण बलात्कार छेड़छाड़ की घटनायें घटित होती है। लेकिन इसके बाद भी इन घटनाओं से सीख लेकर अपनी नाक नहीं संभालते हैं और घर में निर्मल शौंच की व्यवस्था नहीं करते हैं। 


        यही कारण है कि आज भारत में 70 प्रतिशत खुले में शौंच  जाने वाली महिलाए यौन हमले, प्रताड़ना की शिकार होती हैं । जिनमें से 24 प्रतिशत महिलाओं के साथ बलात्कार जैसी अमानवीय घटना घटित होती हैं । जिनमें से अधिकांश कम उम्र की नाबालिग, नासमझ बच्चियों की संख्या अधिक है।
    हम नारी की अस्मिता को घूंघट से नापते हैं और उसे खुले में शौंच की छूट देकर भारतीय समाज में व्याप्त धार्मिकता से जुड़ी दोहरी उस मानसिकता का परिचय देते हैं।  जिसमें राधा को प्रेमिका के रूप में पूजा जाता है। लेकिन उसके द्वारा प्रेम विवाह करने पर उसे खाप पंचायत की बली चढ़ा दी जाती है। 



        हम शहर हो या गांव सब जगह स्वच्छता कार्यक्रम की जिम्मेदारी वोट देने के बाद सरकारी संस्थाओं और सदस्यों पार्षद, सरपंच, सचिव, विधायक, सांसद आदि जनप्रतिनिधियों पर छोड़ देते हैं और उनकी जिम्मेदारी बढ़ाने अपने घर के अन्दर का कचड़ा घर के सामने फेंककर उनकी अग्निपरीक्षा लेते हैं। 


        यही कारण है कि आज हम आजादी के 67-68 साल बाद भी घर के बाहर शौंच कर रहे हैं और इस मानसिकता में जी रहे हैं कि सरकार इसके विरूद्ध व्यवस्था करेंगी जबकि यह कार्य घर परिवार की अन्दरूनी जिम्मेदारी से जुड़ा कार्य है । इस समस्या का हमें खुद ही हल घर में शौचालय बनाकर निकालना चाहिये।


        देश की जनता की गाढ़ी कमाई निर्मल भारत अभियान में बर्बाद नहीं होना चाहिये बल्कि खुद सोच बदलकर घर परिवार निर्मल करना चाहिये। यह अवश्य है कि खुले में शौंच करना हमारी धर्म-संस्कृति से जुड़ी समस्या है। इसलिये इस धार्मिक कुरीति को दूर करने के लिये एक सामाजिक क्रांति और धार्मिक परिवर्तन की आवश्यकता है। 


        हमें परिवार की लड़कियों का विवाह उन घरों में नहीं करना चाहिये जिन घरों में शौचालय नहीं हैं। जिस गांव में शौचालय नहीं उस गांव में विवाह नहीं का सूत्र अपनाना चाहिये। 


        हमारे देश में यह भी देखने में आया है कि घर अथवा आसपास शौचालय होने के बाद भी लोग खुले में शौंच जाना अधिक स्वास्थ्यप्रद और सुविधाजनक समझते हैं।  इससे उन्हें गन्दी प्रदूषित वायु मिल जाती है । बीड़ी सिगरेट तम्बाखू, ड््रग्स पीने मिल जाता है। इसलिये ऐसे लोग खुले में शौंच को प्राथमिकता प्रदान करते हैं। 


     स्वच्छता, स्वास्थ्य और इसके प्रति लोगों की सोच में परिवर्तन तथा जागरूकता एक ही पांसे के चार पहलू हैं। इस पांसे को फेंककर ही   एक साथ इस समस्या का निपटारा किया जा सकता है । जब तक इन चार बिन्दुओं पर एक साथ कार्य नहीं किया जायेगा, तब तक निर्मल भारत की कल्पना हम नहीं कर सकते हैं।
             

        भारत में जो शौंचालय हैं उन्हें भी हम जंगल का मैदान बना देते हैं । शौंच निवृत्ति के बाद हम पानी डालना भूल जाते हैं । यही कारण है कि जितने शौचालय बनाये गये हैं । वे भी कुछ दिनों के बाद गंदगी का ढेर बनकर बीमारियों का पिटारा समेटकर किसी काम के नहीं रह जाते हैं। हमें इस मानसिकता को भी बदलना पड़ेगा। 


        हमें सुलभ शौंचालय में पैसा देने में हमारी जान निकलती है। जो काम हम निःशुल्क खुली हवा करते हैं । उसके लिये हमें पैसा देना अखरता है। हमें इस धारणा को भी बदलना होगा। जब स्वच्छ पानी की बोतल पैसे से खरीद सकते हैं तो स्वास्थ्य और स्वच्छता के लिये पैसा देने में पीछे नहीं रहना चाहिये। 


                          इसके अलावा हमें अपनी पांच हजार साल पुरानी, पुरातनी, पंडिताई सोच को भी बदलना होगा कि घर में शौंचालय नहीं होना चाहिये । यदि शौंचालय होगा तो इससे छुआछूत गंदगी बढ़ेगी और ऐसे लोगों का प्रवेश होगा जिनकी छाया देखना भी उस समय पाप समझा जाता था। लेकिन आज इक्कीसवीं सदी जी रहे हैं । जहाॅ पर गांव गांव बिजली पानी सड़क उपलब्ध हैं। वहाॅ पर हम घर-घर शौचालय भी उपलब्ध करा सकते हैं। इसलिये हमें इस पुरातनी सोच, मानसिकता, धार्मिकता को सामाजिक क्रांति लाकर बदलने की आवश्यकता है।
                   

     

Wednesday, May 21, 2014

मंत्री न होने का गम

                          मंत्री न होने का गम
                     मंत्री होने के बाद मंत्री न होने की कल्पना मंत्री जी नहीं कर सकते है क्योंकि मंत्री न रहने पर सबसे पहले लाल बत्ती वाली गाड़ी चली जाती है। उसके बाद आस पास ब्रेक डांस करते ब्लैक कैट कमांडो चले जाते हैं। सुरक्षा गार्डो से मंत्री जी के पहुंचने के पहले मंत्री जी का जलवा खिच जाता था चारों तरफ घेरकर चलते कमांडो पुराने राजा-महाराजाओं की याद दिलाकर मंत्री जी की छवि में चार चांद लगा देते थे। वह रौनक मंत्री न रहने पर गधे के सींग की तरह गायब हो जाती है।


                       मंत्री न रहने के बाद घर पर मिलने वालों की भीड़ खत्म हो जाती है। इक्का-दुक्का मुलाकाती शुरू में हार का भेद भेदने आते हैं उसके बाद वो भी आना बंद कर देते हैं। सुरक्षा कर्मियों का काफिला घटकर एक दो चैकीदार का रूप ले लेता है। मंत्राईन को खुद खाना बनाना पड़ता है।  निवास के लिए मिला महलनुमा आलीशान बंगला एक फ्लेट का रूप ले लेता है। नहाना, खाना, पखाना के उक्त अलग अलग कई कमरे गायब हो जाते है। गाड़ी मारूती 800 का रूप ले लेती है।


                           देश की गरीब जनता के कल्याण के नाम पर होने वाली बड़ी बड़ी शानदार भव्य पाटियाॅ जिनमें मेहमानों की संख्या से ज्यादा प्रकार की साग सब्जी, तरकारी परोसी जाती है और केवल एक-एक निवाला चखा जाता था सब सपनों की बातें हो जाती है।

                         मंत्रीत्व के दौरान सरकारी पैसों से देशी बीमारी का इलाज विदेशों में कराया जाता है। मंत्री न रहने के नाम देशी डाॅक्टर से ही सैम्पल की दवाएॅं लेकर काम चलाना पड़ता है। ऐजंडे में देश कल्याण के नाम पर जबरदस्ती विदेश यात्राएॅ अवलोकनार्थ जोड़ी जाती थी और फिर जनता के पैसों से विदेश के चरण चूमे जाते थे। लेकिन मंत्री बनने के बाद पड़ोस के गांव की यात्रा भी अपने पैसों से करना संभव नहीं होता है। सरकारी पैसे पर गोवा में फाईव स्टार होटल में कुनबे सहित ऐश करना और रूकने की बात हवा हो जाती है।


    व्यक्ति मंत्री बनते ही लो प्रोफाईल से एकदम हाई प्रोफाईल हो जाता है और मंत्री पद जाते ही वह किसी प्रोफाईल में फिट नहीं बैठता है। उसका जी हमेशा कुर्सी की तलाश में भटकता रहता है।
    इस प्रकार मंत्री पद जाते ही जेड प्लस सुरक्षा, ब्लेक कैट कमांडो, मुलाकातियों की भीड़, लालबत्ती की रौनक, महलनुमान मकान, आलीशान डाईंग रूम, दिल को बाग बाग करता गार्डन आगे पीछे दौड़ता गाडि़यों का काफिला सभी कुछ कपूर की तरह छू हो जाता है।













महानता का मापदण्ड होना चाहिए उसकी कोई सीमा रेखा निर्धारित की जानी चािहए नहीं तो नौशाद, लता मंगेशकर, भीमसेन जोशी, उस्ताद अलाउद्दीन खां, कपिल देव, सचिन तेंदुलकर आदि की जगह कोई और का नाम आ जायेगा और हम इन महान हस्तियों को महानता की सूची से ईमानदारी की तरह नदारत पायेगें।

                   शीर्षक-महान
    महान जिसे अंग्रेजी में ग्रेट हिन्दी में बड़ा, विशाल, अधिक बढ़कर, श्रेष्ठ, उच्च कोटी का कहते है। हमारे समाज में सबसे विवादास्पद शब्द है जिसे देखो वही अपने वालों को महान की उपाधि देता है और जन सामान्य को भ्रम में डालकर रखता है।

    हमारे समाज में महानता की कसौटी क्या है, समाज में नेता प्रथम स्थान पर है उसके बाद साहित्यकार का नम्बर है। जिसमें लेखक, कवि, नाटककार, कहानीकार आदि आते हैं। उसके बाद फिल्मों के अभिनेता, गायक, संगीतकार आदि आते हैं। फिर शास्त्रीय संगीत से संबंधित गायक परिवार खानदान का नम्बर आता है।


    हमारे यहां जैसा देश वैसा भेष की तर्ज पर सभी को महान बना दिया जाता है। जनता नेता को महान बताती है नेता जनता को महान बोलता है दोनों अपनी अपनी जगह महान है। जनता इसलिए महान है कि वह इतने दुःख तकलीफ, यंत्रणा, वेदना के बाद भी उसी नेता को चुनती है जो 5 साल उसके साथ लाईट गुल होने की तरह आंख मिचैली करता है। ऐसा नेता जिसने कभी भी किये गये वायदे आश्वासन को पूरा नहीं किया उसे 05 साल सिर्फ अपना पेट दिखाई दिया उसने जनता को पीठ दिखाई थी उसके बाद भी वह चुनकर आते हैं और महान होने के कारण जनता के भाग्य विधाता पालन हार कहलाते है।    


    नेता इसलिए भी महान है कि वह जनता की भलाई के नाम पर चुने जाते हैं और चुनते ही सब कुछ भूल जाते हैं और उसके बाद उसे  घोटाला, कोटा, परमिट सौदे ही याद रहते है। उसे पानी, बिजली, शिक्षा रोटी के लिये तरसते तड़पती जनता दिखाई नहीं देती है। इसके बाद भी वह हिम्मत करके फिर से मैदान में सीना तानकर पहले से ज्यादा गाड़ी-घोड़े के साथ जनता के बीच वोट मांगने पहुंच जाते हैं। जनता को इतना दुख, तकलीफ देने के बाद भी वही चेहरे फिर से चुनकर आ जाते हैं इसलिए नेता महान है।


    राजनेताओं में भले ही ‘‘अशोका दी ग्रेट‘‘, अकबर महान, की छवि लेश मात्र भी नजर नहीं आती तब भी हम उन्हें महान कहते हैं क्योंकि  हम अपना काम निकलवाने, परमिट प्राप्त करने उसका गुणगान करते हैं। सत्ता का सुख और उसका नशा, वैभव की चमक-धमक देखकर हम लोग दिल से तो नहीं लेकिन उपरी मन से जरूर महान कहते हैं।


    साहित्यकारों में तुलसी, सूर, कबीर, जायसी, निराला आदि कई महान कबि हुए है। जिनकी कोई तुलना नहीं है। यदि उनकी उंचाई को देखे तो उसकी छाया मात्र वाला कोई कबि नजर नहीं आता है उसके बाद भी साहित्य समारोह में कई महान कबियों के दर्शन स्टेज पर हो जाते हैं। उनके महान होने की माईक में घोषणायें हो जाती हैं।


    आचार्य हजारी प्रसाद , रामचंद्र शुक्ल, भारतेंदु हरिशचंद्र, प्रेमचंद, कविवर रविंद्रनाथ टैगौर, शरदचंद, हरिशंकर परसाई आदि कई महानता की सीमा रेखा छूने वाले साहित्यकार हुए है और आगे भी इनकी महानता में वृद्धि होगी क्योंकि इनके शिखर के समक्ष कोई साहित्यकार नहीं पहुंच पा रहा है।


    महानता का मापदण्ड होना चाहिए उसकी कोई सीमा रेखा निर्धारित की जानी चािहए नहीं तो नौशाद, लता मंगेशकर, भीमसेन जोशी, उस्ताद अलाउद्दीन खां, कपिल देव, सचिन तेंदुलकर आदि की जगह कोई और का नाम आ जायेगा और हम इन महान हस्तियों को महानता की सूची से ईमानदारी की तरह नदारत पायेगें।




Thursday, January 30, 2014

श्री हरिशंकर परसाई



                                    // हरिकथा - हरि अनंता //
                                                ‘‘ उमेश कुमार गुप्ता ‘‘
                       
                           व्यंग्य के श्री हरि परेशान थे, लोग उनकी व्यंग्य विधा को साहित्य की विधा नहीं मानते थे। इस कारण शंकर होते हुए भी लोग उन्हें पूजने तैयार नहीं थे । जबकि व्यंग्य के वे श्री गणेश थे। ऐसे में दुखी होना स्वाभाविक था। लेकिन श्री हरिशंकर परसाई की परेशानी ज्यादा दिन नहीं चली और परसाई जी ने व्यंग्य को साहित्य विधा का रूप दिलवा ही दिया ।

                                   श्री परसाई समीक्षकों की इस बात से दुखी थे कि व्यंग्य पढ़ने के बाद लोग उसके सही रूप को जानकर भी अनजाने बने रहते हैं और बडा़ मजा आया, अच्छंे छक्के छुड़ा दिये, खूब खिचाई की, खाल खींचकर रख दी, क्या लिखा बोलती बंद कर दी, क्या बत्ती दी, हवा टाईट कर दी आदि प्रमाण पत्र व्यंग्यकारो को दिये जाते हैं जो आज भी सुनने को मिल  रहे हैं ।

                             इन बातों से तो समीक्षकों को खुशी मिलती हैं, लेखक दुखी होता हैं, वह समझ नहीं पाता हैं कि उसके संदेश को जानने, समझने के बाद यह भांड वाली बात व्यंग्यकारों के बारे में समीक्षकों के द्वारा क्यों की जा रही हैं और इस प्रकार के प्रमाण पत्र क्यों दिये जा रहे हैं।
                      व्यंग्य जैसे गंभीर विषय को विनोद, हास्य, माखौल , मजा से जोड़ा जाता हैं । चोर अपने जैसे चोर को देखकर चोर कैसे कहेगा, वह तो उसे आदमी कहेगा यही हाल व्यंग्य का हैं।  समीक्षक उसकी भाषा,शिक्षा, सार, अनुभव  को लोगो तक कम ला पाते हैं। ऐसे में जनता जो कम पढ़ी लिखी हैं, उसकी सोचने समझने की शक्ति समाप्त हो गई यदि उसे समझाने का प्रयास करें तो व्यंग्य के साथ मजा आ गया, बखिया उधेड़ दी वाली बात नहीं जुडे़गी 

                           कोई व्यंग्य लेखक व्यंग्य सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने या किसी को नीचा दिखाने अथवा अपमानित करने अपने हाथ से अपनी पीठ थपथपाने नहीं लिखता हैं। जिस व्यवस्था के सभी शिकार हैं, उस व्यवस्था का वह भी शिकार हैं। सब चुप हैं, उसमें साहस हैं, ताकत हैं, लड़ने की हिम्मत हैं। वह कलम उठा लेता हैं और व्यंग्यकार, कार्टूनिस्ट, जोकर, मसखरा, भांड लोगों की नजर बन जाता हैं।

                            यह भी व्यंग्य हैं कि अंधों को आॅख दो, लेकिन वे आॅख नहीं चाहते हैं । उन्हें अंधेपन में ही मजा आता हैं। उन्हें रास्ता दिखाओं वे चलना नहीं चाहते हैं। उन्हें अंधियारी गलियों में ही खुशी मिलती हैं। कौन व्यवस्था से लड़ने- झगड़ने- बोलने की सजा भुगते। आखिर कब तक चलेगा किसी को तो  ह.श.प. बनना ही पड़ेगा।

                                                दूसरो के कष्ट का ध्यान रखने वाले, दूसरों के दुख को अपना दुख समझने वाले परसाई जी की यही बीमारी थी। उन्होने नाम के अनुरूप दूसरो के दुख को अपना दुख समझा और उसकी व्यथा को व्यक्त किया और कुछ लोग समाज में ऐसे रहते हैं जो लातों के भूत हैं, बातों से नहीं मानते हैं, उन्हें कौटिल्य की भाषा में समझाईश दी जाए तो अच्छा रहता हैं। जिसकी आॅखों में पानी रहता हैं, उन्हें बातों से समझाया जा सकता हैं, जब आॅख का पानी ही मर गया फिर बात काम नहीं करती हैं।
         हरि का दुख हरि जाने। नीलकंठी लेखक चाहता तो बिना नीला कंठ किये कविता, कहानी, उपन्यास में व्यथा भर सकता था, जो जिसके लिए व्यथा थी, जिसके संबंध में लिखा गया हैं, उसके लिए मजा बन गई, लेकिन व्यंग्य विधा अपनाकर, कंठ नीला कर, श्री परसाई ने व्यंग्य लेखन को ही चुना और व्यंग्यकार के रूप में विश्वप्रसिद्ध हो गये।  व्यंग्य को साहित्य विधा का दर्जा दिलाया ।

                        व्यंग्य के सांई, हरि, शंकर, गणेश, ब्रम्हा, विष्णु सब कुछ का कहना हैं कि मनुष्य जटिल प्राणी हैं। उसके बाहरी और भीतरी रूप को बहुत समझना कठिन हैं, उसकी आशा-निराशा, भ्रम, अहंकार, स्वार्थ, त्याग, क्रोध, करूणा को समझना ही दिलचस्प अध्ययन हैं। श्री हरि ने घोर निराशा में मनुष्य को लड़ते देखा हैं। भ्रम की चादर ओढ़े गम को परखा हैं, आत्मवचंना के रंगीन महल में आदमी को आनंद से जिन्दगी गुजारते देखा हैं। जीवन की सार्थकता की खोज में जिदंगी कई रंगीन रूप लेती हैं। जिन्हें रेखाओं से बांधने का प्रयास किया हैं।



                                समाज में आवश्यक, चिर-परिचत जीव मुफ्तखोर,अनशनकारी,आईल किंग,बातूनी, दल-बदल वाले, पर ध्यान दिया गया हैं तो घायलबसंत, अकालउत्सव, हरिजन को पीटने यश, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, आदि राष्ट्र्ीय त्यौहारो का वर्णन किया हैं।
        आदमी के नस में रच-बस गई बेईमानी की परत, पवित्रता का ढोंग, वैष्णव की फिसलन, दो नाक वाले लोग, ठंडा शरीफ आदमी की, उन्होने नब्ज पहचान कर उनको दर्पण दिखाया हैं। 

           व्यंग्य जैसे गंभीर विषय को विनोद, हास्य, माखौल , मजा से जोड़ा जाता हैं । चोर अपने जैसे चोर को देखकर चोर कैसे कहेगा, वह तो उसे आदमी कहेगा यही हाल व्यंग्य का हैं। समीक्षक उसकी भाषा,शिक्षा, सार, अनुभव को लोगो तक कम ला पाते हैं। ऐसे में जनता जो कम पढ़ी लिखी हैं, उसकी सोचने समझने की शक्ति समाप्त हो गई यदि उसे समझाने का प्रयास करें तो व्यंग्य के साथ मजा आ गया, बखिया उधेड़ दी वाली बात नहीं जुडे़गी ।

                      आदमी व्यंग्य में हास्य कविता चाहता हैं। कहाॅ से मिलेगी। कुनैन की दुकान में जलेबी चाह रहे हैं और कुनैन की जलेबी समझकर खा भी रहे हैं। कहाॅ से मलेरिया भगेगा, उल्टा डाॅक्टर को गाली दे रहे हो। खाल खींचकर  रख दी कहकर उसके दर्शन को अपमानित कर रहे हो। उसके चिन्तन के साथ खिलवाड़ किया जा रहा हैं ।
   
                        श्री हरि कटु, निर्मल और धोबी पछाड़ आदमी थे। वे चूहों पर सोये, मनुष्यनुमा विच्छुओं और साॅपों ने उन्हें काटा पर समाज बेचारा परसाई पैदा नहीं कर पाया।उनका मानना था कि वे निहायत बेचैन मन का संवेदनशील आदमी हैं उन्हें चैन कभी मिल ही नहीं सकता । इसलिये गर्दिश उनकी नियति हैं। बिना टिकिट सफर करना उधार मांगने की कला, वेफिक्री, कोई चिंता नहीं, जैसे गुरूमंत्र , रोना नहीं हैं लड़ना हैं, डर गये तो मर गये  के मूल मंत्र के साथ व्यंग्य लेखन शुरू कर दिया और कई बेचारो के बीच अपने को बेचारा न पाकर, कई कष्ट, संघर्षो के बीच अपने संघर्ष को संघर्ष न मानकर लड़ना प्रारंभ किया।
       
                   उनका मानना था कि मुक्ति अकेले की नहीं होती। अलग से अपना भला नहीं हो सकता। मनुष्य की छटपटाहट हैं मुक्ति के लिए, सुख के लिए, न्याय के लिये । पर यह बड़ी लडाई अकेले नहीं लड़ी जा सकती हैं। अकेले वही सुखी हैं, जिन्हें कोई लड़ाई नहीं लड़नी । उनकी बात अलग हैं। अनगिनत लोगों को सुखी देखता हूॅं और अचरज करता हूॅं कि ये सुखी कैसे हैं। न उनके मन में सवाल उठते, न शंका उठती हैं। ये जब तब सिर्फ शिकायत कर लेते हैं। शिकायत भी सुख देती हैं। और वे ज्यादा सुखी हो जाते हैं।

                        लेखक ने व्यक्तित्व की रक्षा, अविशिष्ठ होने से बचने का रास्ता , दुनिया से लड़ने का हथियार बनाया और उसे व्यंग्यात्मक लेखन को ढाल बनाकर, गरीबी, बेकारी, भूखमरी, भ्रष्टाचार, विषमताओं से भरे वट वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त कर उन्होने कलम पकड़कर चेतना संपन्न होने का परिचय दिया ।

                            सत्यम-शिवम-सुन्दरम को मूल मंत्र मानने वाले श्री सांई ने ठान लिया कि रोना नहीं लड़ना हैं। कलम से लड़ना हैं और अकेले लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती हैं, इसलिए असंख्य पाठको को तैयार कर लड़ाई प्रारंभ की गई। जो वर्तमान में व्यंग्य विधा के रूप में देखने मिल रही हैं ।

                              22 अगस्त 1924 को जमानी होशंगाबाद मध्य प्रदेश में जन्मे, नागपूर विश्व विद्यालय से एम0ए0 हिन्दी पास कर श्री परसाई ने कई नौकरियाॅं छोड़ी। मास्साब होने का सुख उठाया , 1957 से स्वतंत्र लेखन, नौकरी  छोड़कर  प्रारंभ किया और वसुधा
नामक साहित्यकि पत्रिका को घाटे की अर्थव्यवस्था  में सरकार चलाने के समान चलाया और अनेक व्यंग्य रचना कर व्यंग्य को साहित्य विधा का रूप कहानी, उपन्यास, निबंध, स्तम्भ लेखन कर दिया।
                           उनके द्वारा नयी दुनिया समाचार पत्र में सुनो भाई साधो, नयी कहानियों में पाॅचवा कालम, और उलझी-सुलझीं, कल्पना मंै, और अन्तमें, शीर्षक से स्तम्भ लेखन कर व्यंग्य को रातोरात साहित्यिक् दर्जा दिलवाया। पाठ्य पुस्तकों में उनके निबन्ध शामिल किये गये। विकलांग श्रद्धा का दौर के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया इसके अलावा केंद्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार शिखर सम्मान जैसे कई सम्मान उन्हें उनके दिन फिरे कहानी संग्रह और रानी नागमति की कहानी के लिये दिया गया । 
  
                           श्री हरिशंकर परसाई जी जनता के लेखक के रूप में जनता के बीच लोेकप्रिय हुए। उनके द्वारा लगातार खोखली होती जा रही राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय परिवार की व्यथा, वेदना, कष्ट को बहुत सच्चाई के साथ प्रकट किया गया और सामाजिक पाखण्ड जीवन मूल्यों की धज्जियाॅं उडाती परम्पराओं को विवेक और सकारात्मक रूप से प्रकट किया। उनकी व्यंग्य रचनाएॅं गुदगुदी पैदा न करके मनुष्य को कुछ करने, सोचने, समझने बाध्य करती हैं ।

                      श्री प्रेमचंद के बाद श्री हरिशंकर परसाई ने  सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक विषयों पर सतत् तीखा, सरल लेखन कर समाज में यथार्थ और तमीज पैदा की थी।
                            ईमानदारी समाज में बेवाकूफी का पर्याय बन गई हैं। उन्होने ही ईमानदारी की सटीक परिभाषा दी कि जिसे बेईमानी का अवसर प्राप्त नहीं हैं वहीं समाज में ईमानदार हैं।
       
                           बेईमानी के पैसे में ही पोष्टिक तत्व हैं । रोटी खाने से कोई मोटा नहीं होता, चन्दा या घूस खाने से मोटा होता हैं। कहने की दम और समझ रखने वाले परसाई ने अमानवीयता की तार तार खेलकर समाज के समक्ष रख दी । यही कारण हैं कि उनकी साफगोइर्, निडरता, से लिखी बातें मन पर असर, याद, गूज,प्रहार, समझा पैदा करती हैं ।
       
                        व्यंग्य को श्री परसाई ने हल्के फुल्के मनोरंजन की परम्परागत परिधि से अलग हटाकर साहित्यिक विद्या का दर्जा दिलवाया था। ऐसा नहीं हैं कि इसके पहले व्यंगकार नहीं हुए या व्यंग्य रचनाएॅ नहीं  लिखी गई। भारतेन्दू हरिशचंद्र, जी.पी. श्रीवास्तव आदि साहित्यकारो ने व्यंग्य रचनाएॅं लिखी थी परन्तु कोई साहित्यकार विशुद्ध रूप से व्यंग्यकार नहीं था वह व्यंग्यकार कहलाना भी नहीं चाहता था और अकेले व्यंग्य लिखकर साहित्य में अपना स्थान भी सुरक्षित नहीं पाते थे । इस चक्रव्यूह को श्री हरि ने तोडा था और व्यंग्य को एक अलग दर्जा दिलाया था । उसे शूद्र से क्षत्रीय बनाया था। व्यंग्य को  ब्राहम्ण इसलिये नहीं कह सकते हैं क्योंकि वह कीर्तन करता हैं और व्यंग्यकार को कीर्तन करना आता नहीं हैं।
       
                               लेखक के व्यक्तित्व निर्माण और मानसिकता पर उसके जीवन संघर्ष का गहरा असर पड़ा । यह बात श्री परसाई के लेखन से स्पष्ट झलकती हैं। अभाव, त्याग, गर्दिश, संघर्ष ही ऐसा औघड़, कबीर व्यक्तित्व पैदा कर सकती हैं।उनके व्यंग्य की यह विशेषता हैं कि उन्होने व्यक्ति के निजी अनुभव को एक पूरे समाज का अनुभव का हिस्सा बना दिया, उनकी बात एक व्यक्ति के दुख, तखलीफ से जुडकर मात्र आत्मालाप न रहकर उसकी निजता से छुटकारा दिला उसे सामाजिक बना देती हैं।

                                   वे जीवन के अंतिम क्षण तक, बिस्तर पर पडे़ होने के बाद भी लिखते रहे और उनकी लेखन की गर्दिश अन्त तक खत्म नहीं हुई थी। सब कुछ मिल जाने के बाद भी व्यंग्य लेखन के लिये तड़पते पाये गये थे ।

                      श्री हरि ने बचपन में 1936 के आसपास प्लेग जैसा भयानक राक्षस देखा था। जिसने माॅ को डस लिया और पिता को तोड के रख दिया उसके 5-6 साल बाद उनके पिता भी पाॅच भाई बहिनो में से एक बहिन की शादी कर गुजर गये। मेट्र्कि पास कर जंगल विभाग की नौकरी की मस्त जिन्दगी गुजारी उसके बाद स्कूल मास्टरी टीचर्स ट्र्ेनिंग काॅलेज में नौकरी की और फिर सब कुछ छोड़कर सतत् लेखन प्रारंभ किया ।

                                 श्री शंकर का मानना था कि समाज में व्याप्त विसंगतियोंको व्यक्ति और समाज के अर्थ में खोजकर उसकी जड़ में जाकर अर्थ देना और उसे विरोधाभाष से अलग करना एक गंभीर लेखन कर्म हैं। समाज को विसंगती की व्यापकता बतलाना उसकी जीवन में क्या अहमियत हैं यह दिखलाना टेढी  खीर है।  जिसे श्री परसाई ने बाखूबी से व्यक्त कर व्यंग्य शिल्पी के रूप में ख्याती पाई थी

 ।                            श्री परसाई का कहना था कि वे मनुष्य को नीचा दिखाने के लिए नहीं लिखते हैं। उनका उद्देश्य मनुष्य को और बेहतर मनुष्य बनाना रहा हैं। उनका संदेशरहा हैं कि ‘‘ मनुष्य तू अधिक सच्चा, न्यायी, मानवीय बन‘‘ वह मानव जीवन के प्रति आशावान थे। इसलिये उसकी कमजोरियों पर रोते थे।


                           साहित्यकार समाज की बुराईयों को बतलाने वाला डाॅक्टर हैं। डाॅक्टर केवल बीमारी ही नहीं बताता बल्कि इलाज भी बताता हैं। ऐसे में व्यंग्कार को निर्मम, कठोर, बुरा देखने वाला, छिन्द्रावेशी, छापामार, कहना गलत हैं। कैंसर के रोगी को कैंसर ही बताया जायेगा ताकि उसका इलाज शीघ्र उसी रूप में सम्भव हो सके ।
                          श्री परसाई ने अपने पार्टनर ब्रम्हराक्षस, मित्र, गजानंद माधव मुक्ति बोध के मार्ग पर चलते हुए लेखन कार्य किया कि इसलिए कि जो हैं, उससे बेहतर चाहिए पूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए ‘‘ इसी कविता से आप लेखकों के मन की व्यथा जान सकते हैं और समझ सकते हैं कि व्यंग्य विधा कोई विनोद, हास्य, माखौल नहीं हैं बल्कि एक गंभीर लेखन, करूणा की अंतर्धारा, मन को सोचने के लिये, कर्म को करने के लिए बाध्य करने वाली जीवन की समीक्षा हैं ।

                              उनकी नजर में व्यंग्य व्यापक सामाजिक, आर्थिक,राजनीतिक परिवेश की विसंगति मिथ्याचार, असामंजस्य, अन्याय आदि की तह में जाना, कारणो का विश्लेषण करना, उन्हें सही परिप्रेक्ष्य में देखना व्यंग्य हैं । उनके अनुसार व्यंग्य चेतना को झकझोर देता हैं, व्यक्ति को उसके सामने खडा कर देता हैं, आत्म-साक्षात्कार कराता हैं, सोचनेको बाध्य करता हैं, व्यवस्था की सड़ांघ को दर्शाता हैं, परिवर्तन की ओर प्रेरित करता हैं । यही कारण हैं कि जितना व्यापक परिवेश होगा जितनी गहरी विसंगति होगी, जितनी तिलमिला देने वाली अभिव्यक्ति होगी व्यंग्य उतना ही सार्थक होगा ।
       
        उनका मानना था कि व्यंग्य मानव सहानुभूति से पैदा होता हैं। वह मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाना चाहता हैं। वह मनुष्य से कहता हैं कि तू अधिक सच्चा, न्यायी, मानवीय बन। यदि मनुष्य के प्रति व्यंग्यकार को आशा नहीं हैं, यदि वह जीवन के प्रति कनसन्र्ड नहीं हैं तो वह क्यों रोता हैं उसकी कमजोरियों पर। जो यह कहते हैं कि व्यंग्य लेखक निमर्म, कठोर और मनुष्य विरोधी होता हैं, उसे बुराई ही बुराई दिखती हैं, उनका कहना हैं कि   डाॅक्टर के पास जो लोग जाते हैं उन्हें वह रोग बताता हैं। तो क्या डाॅक्टर कठोर हैं ? अमानवीय हैं ? अगर डाॅक्टर रोग का निदान न करें और अच्छा ही अच्छा कहें तो रोगी मर जायेगा । जीवन की कमजोरियों का निदान करना कठोर होना नहीं हैं। अच्छे व्यंग्य में करूणा की अंतर्धारा होती हैं। 

                                हम व्यंग्य को चाहें तो तीव्रतम क्षमताशील व्यंजनात्मकता के रूप में देख सकते हैं। व्यंग्य सहृदय में हलचल पैदा करता है। अपने प्रभाव में व्यंग्य करूण या कटु कुछ भी हो सकता है, मगर वह बैचेनी जरूर पैदा करेगा।

        व्यंग्य और हास्य को परिभाषित करते हुए उन्होने कहा कि यह तय करना भी कठिन हैं कि कहाॅ हास्य खत्म होता हैं और  व्यंग्य शुरू होता हैं। उन्हंे व्यंग्य में हॅसी भी आ सकती हैं इससे वह हास्य नहीं हो जाता, मुख्य बात हैं, वर्णित वस्तु का उद्देश्य और सारोकार हैं।
        पीडि़त, मजबूर, गरीब, शारीरिक विकृति का शिकार, नारी, नौकर आदि को हास्य का विषय बनाना कुरूचिपूर्ण और क्रूर है। लेखक को यह विवेक होना चाहिए कि किस पर हंसना और किस पर रोना। पीटनेवाले पर भी हंसना और पिटनेवाले पर भी हंसना विवेकहीन हास्य है। ऐसा लेखक संवेदना शून्य होता है।

                       श्री परसाई के अनुसार आदमी हॅसता क्यों हैं ? परम्परा से हर समाज की कुछ संगतियाॅं होती हैं, सामंजस्य होते हैं, अनुपात होते हैं। ये व्यक्ति और समाज दोनो के होते हैं। जब यह संगति गड़बड़ होती हैं तब चेतना में चमक पैदा होती हैं। इस चमक से हॅंसी भी आ सकती हैं और चेतना में हलचल भी पैदा हो सकती हैं।

                             व्यंग्य के साथ जो हंसी आती हैं। वह दूसरे प्रकार की होती हैं। उस हंसी में की गई गलतियाॅ, न समझने में आना वाला व्यवहार, व्यवस्था और विसंगतियों के भागीदार होने का दुख छुपा होता हैं जो भूतकाल में पैदा होने के कारण एक हंसी उत्पन्न करता हैं और आगे सोचने, समझने बाध्य करता हैं। 

                           उनके बडे भाई श्री नर्मदाप्रसाद खरे के अनुसार श्री परसाई का व्यंग्य इतना सजग, तीव्र , तीखा, चेतन्य था जिसमें वर्तमान सामाजिक जीवन की सड़ाॅध , विरूपता, विसंगति के साथ ही जीवन के प्रति आस्था, व्यक्त होती थी, वे घोर यथार्थवादी लेखक  विचारक थे। उन्होने व्यावहारिक जीवन में भीषण संघर्ष किया इसलिए उन्होनेजीवन के हर सन्दर्भ में जुझारू रचनाएॅ की के साथ जुड़े हुए हैं। वे राजनीति, समाज, संस्कृति, साहित्य और कला के यथार्थ वाहक हैं। यही कारण हैं कि उनके व्यक्तितत्व में कबीर का फक्कड़पन तथा उनके लेखन में निराला की जीवंतता समन्वित हैं।


                     प्रसिद्ध चित्रकार श्री जोगेन चैधरी ने सही कहा हैं कि  हरिशंकर परसाई हिन्दी के पहले रचनाकार हैं, जिन्होने व्यंगय को विधा का दरजा दिलाया और उसे हल्के-फुल्के मनोरंजन की परम्परागत परिधि से उबारकर समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा हैं। उनकी व्यंग्य रचनाएॅं हमारे मन में गुदगुदी पैदा नहीं करती, बल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमने-सामने खड़ा करती हैं, जिनसे किसी भी व्यक्ति का अलग रह पाना लगभग असम्भव हैं। लगातार खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में पिसने मध्यवर्गीय मन की सच्चाईयों को उन्होने बहुत ही निकटता से पकडा हैं। सामाजिक पाखण्ड और रूढि़वादी जीवन-मूल्यों की खिल्ली उड़ाते हुए उन्होने सदैव विवेक और विज्ञान-सम्मत दृष्टि को सकारात्मक रूप से प्रस्तुत किया हैं। उनकी भाषा-शैली में खास किस्म का अपनापा हैं, जिससे पाठक ये महसूस करता हैं कि लेखक उसके सिर पर नहीं, सामने ही बैठा हैं।


                          यही कारण हैं कि वे एक लोक विश्वास के रूप में उभरे और व्यंग्य को लोकप्रियता के चरम शिखर पर पहुंचाया।श्री परसाई के व्यंग्य में जीवन की तीखी आलोचना हैं। चेतना को झकझोर देने वाला सत्य हैं और मन को तिलमिला देनेवाली व्यंजना हैं जिस पढकर  वे सब दृष्य, चेहरे और हालात, जो बहुत पास होकर भी अनदेखे रह जाते हैं, उसके सामने पाठक के सामने प्रकट हो जाते हैं।
       





                   

        यह श्री हरिशंकर परसाई के संबंध में उनके एकलव्य का एक बहुत छोटा रूप रेखा चित्र हैं । हरिकथा बहुत हैं उसका अन्त नहीं हैं इसलिए हरिकथा - हरि अनन्ता के गुरूमंत्र के साथ उनके जीवन लेखन पर एक रेखाचित्र वर्णित किया गया हैं।

Thursday, October 31, 2013

आस्था और अंधविश्वास

   आस्था और अंधविश्वास

        हमारे देश में टोना-टोटका, काला जादू, तंत्र-मंत्र, बुरी नजर उतारने, खजाना प्राप्त करने, पुत्र/अचानक धन प्राप्ति हेतु उच्च पद प्राप्त करने, मंत्री-संतरी बनने आदि शुभ और मंगल कार्य और कामनाओं के लिये लोग बाबा, बैरागियों, तांत्रिकों, ओझा, पंडितों के जाल में फंसते हैं और फिर उनके बहकावे में आकर ठगे जाते हैं।

        लोगों को झाड़-फूक, तंत्र-मंत्र, टोना-टोटका के नाम पर रूपये, पैसे सोना-चांदी से ठगा जाता है। हमारे देश में सबसे ज्यादा स्त्रियाॅ अन्धविश्वास की शिकार होती है और वही सबसे ज्यादा इसके   होती है उनका का शारीरिक, मानसिक शोषण होता है, उनके साथ वैश्या जैसा व्यवहार किया जाता है, उसके बाद भी अन्धश्रद्धा, अन्धभक्ति, अन्धविश्वास के जाल में फंसकर व्यक्ति अपना सर्वस्व लूटा देते हैं।

        हमारे देश में बहुत से पाखंड चन्द, नौटंकीराम, झासाराम, तमाशाराम मौजूद हैं, जो दुराचार की सीमा लांघ कर भी साधु, संत-सन्यासी का चोला धारण किए हुए हैं। जिन्हें आज भी देश की भोली-भाली अंधविश्वासी जनता का ही वरदहस्त प्राप्त नहीं हैं, बल्कि देश के बड़े राजनेता, उद्योगपति भी पाखंड की लाखों की भीड़ में यशगान, स्तुति, गुणगान, प्रशंसा करते नजर आते हैं, जिससे इनका खुलेआम प्रचार प्रसार होता है। वे भी आम लोगों को इनके नाम का प्रयोग धमकाने, चमकाने, डराने के लिये करते हैं उन सन्यासियों का खुलेआम चैलेन्ज रहता है, कि कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है, सत्ता भी उनके चरण स्पर्श करती हैं।

        हमारे देश में केन्द्र स्तर पर कोई एन्टी मैजिक कानून नहीं है। अंधविश्वास से समाज को मुक्त कराने के लिये इस प्रकार के कड़े कानून देश में लागू होना चाहिए। भूत-प्रेत, जंतर-मंतर जैसे अंधविश्वास के तहत हजारों नरबली दी जाती हैं, महिलाओं का यौन शोषण होता है। लोगों के साथ आस्था के नाम पर अंधविश्वास फैला कर लोगों को लूटा जाता है।

        डाॅ0नंदनी दालोनकर और उसके साथ अन्य समाजसेवियों के द्वारा अंधविश्वास के विरोध करने का प्रयास कर लोगों को अंधविश्वास से दूर रहने का संदेश दिया गया जिससे डाॅ0दालोभकर की हत्या की गई जो इस बात को दर्शाता है, कि हमारा समाज अभी भी अंधविश्वास और तंत्र मंत्र से ग्रसित हैं।

        हमारे देश का समाज इससे अशिक्षित वर्ग तो प्रभावित है और लिखे पढ़े नेता अभिनेता इससे अछूते नहीं हैं वे भी गण्डे ताबीज बांधते हैं और दोनों हाथों की 10 अंगुलियों में पहने देखा जा सकता है।

        समाज में लोगों के मध्य जनसंचार के माध्यम टेलिविजन से प्रचार प्रसार किया जाता है। लोगों को लक्ष्मीयंत्र, कुबेर की चाबी,   आदि वस्तुएॅ विक्रय की जाती है। जो टी0व्ही0 चैनल दिन में अंधविश्वास का विरोध प्रसारित करते हैं, रात में वहीं चैनल ऐसे अंधविश्वास , बाबाओं की निर्मल वाणी प्रसारित करते हुए देखे जा सकते हैं। राम की आशा में ऐसे पंडितों के द्वारा धारा प्रभाव अंधविश्वास पर आधारित प्रवचन, भजन, कीर्तन आदि के कार्यक्रम दर्शाये जाते हैं, जिससे दुखी और पीडि़त लोगों में बनावटी खौफ पैदा करके लोगों को अंधविश्वास की ओर आकर्षित करते हैं।

        हमारे देश में तंत्र-मंत्र, जादू टोना पूर्व की तरह आज भी लगातार जारी है जबकि हमारे धर्मग्रन्थों में अंधविश्वास नहीं है वे वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित सिद्धांतों की व्याख्या करते हैं, इसी कारण भारतीय पद्धति को दुनिया ने अपनाया है, लेकिन हमारे धर्म गुरू इन्हीं धर्म की आड़ में अंधविश्वास फैलाते हैं।

        आज वैज्ञानिक युग में यह प्रमाणित हो चुका है, कि अंधविश्वास, जादू टोना-टोटका केवल मन का भ्रम है। भूत-प्रेत, चुड़ैल, चुड़ैल, डायन मन की कमजोरी है। लेकिन इसके बाद भी लोग झाड़-फूंक के चक्कर में पड़कर अपना जीवन बर्बाद करते हैं, इसके लिये आवश्यक है, कि स्कूल, कालेजों के माध्यम के पाठ्यक्रम में उसे शामिल किया जावे। सार्वजनिक रूप से इसका प्रभाव टी0व्ही0 जैसे जन संचार के माध्यम से रोका जावे और बाबाओं की निर्मल वाणी पर रोक लगाई जावे।

        हम देख रहे हैं, कि हमारे देश में अंधविश्वास देश को नर्क की ओर ले जा रहा है इसलिए देश में व्याप्त पाखंडियों को उखाड़ फेंकने की आवश्यकता आज भी जिस महिला का शोषण करना होता है तो उसे घर से निकाल दिया जाता है और उसके साथ यौन शोषण किया जाता है। हमारे समाज में सबसे ज्यादा महिला अंधविश्वास की शिकार होती है और वही सबसे ज्यादा प्रभावित होती है। भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, ग्रह-नक्षत्र, राशि-चक्र, भाग्य-भविष्य, आत्मा-परमात्मा, पुनर्जन्म-अवतारवाद, ज्योतिष-लाल किताब आदि को भारत में बुद्धीजीवी मान्यता प्रदान करते हैं। 

        अंधविश्वास को ईश्वर की आड़ में फैलाया जाता है। अमावस्या और पूर्णिमा को तांत्रिकों की पंचायत बैठती है। उल्लू का खून चढ़ाकर लक्ष्मी को खुश किया जाता है। पिछड़े ग्रामीण क्षेत्रों में हर घटनाक्रम को अंधविश्वास से जोड़ा जाता है। संकट दूर करने का     किया जाता है।
      

Saturday, September 28, 2013

// उफान //

// उफान //

        हमारे देश में हर चीज उफान पर है । मंहगाई तूफान पर है । रूपये की अंर्ताराष्ट्र्ीय कीमत चढान पर है । पेट्र्ोल-डीजल की कीमते खौल रही हैं । खाने की वस्तु जला रही हैं । दूध, खाद्य तेल उबाल पर हैं । इन सब तूफानों के बीच देश का आम गरीब आदमी अपनी नैया पार करने की कोशिश कर रहा है ।
        देश में न्याय, शिक्षा, आहार, आवास जैसी बुनियादी सुविधाएं मंहगी हैं।  शिक्षा पर मंहगाई का ग्रहण लगा है । लाखों रूपये आवश्यक कोर्स की कीमत है । अस्पताल के बिल, फाईव स्टार होटल के, केश मेमो की याद दिलाते हैं । दबाओं की कीमतें उफान पर हैं । जल, जंगल, जमीन की कीमतें, बिजली के बिल की तरह करंेट मारती है। एक आम वेतनभोगी के जिन्दगी भर के वेतन से ज्यादा अर्फोडेबल हाउस की कीमत है।
        देश में अशलीलता उफान पर है। सिनेमा, टी.व्ही सीरियल, चैनल, अश्लीलता, अंधविश्वास हमारे बेडरूम और डायनिंग टेबिल पर परोस रहे हैं। दिन मंे जो चैनल अंधविश्वास, भूतप्रेत, तंत्र-मंत्र जादू टोना का विरोध करतें हैं वहीं रात में लाखों करोडों रूपये का विज्ञापन प्रचार प्रसार में कोई कमी नहीं छोड़ते हैं। वे ढोंगी, पाखंडी, बाबाओं के निर्मल दर्शन कराते हैं । टोने टोटके, जादूटोने के नाम पर यंत्र बिकवाते हैं। श्री लक्ष्मीयंत्र धनवृद्वि ताबीज, कुबेर  कुंजी  बिकवाकर अपनी धनवृद्धि करते हैं। राम राज्य की आशा जगाकर अंधश्रद्धा का प्रचार करते हैं।
        देश में भ्रष्टाचार उबाल पर है। विकेन्द्रीकरण के कारण पंचायत, नगर पंचायत, नगरपालिका, नगरनिगम आदि स्वायत संस्थाएॅ भ्रष्टाचार का साधन और साध्य बन गई हंैं। आम जनता में विकास की सड़क एवं शिक्षा की रोशनी जगाने के नाम पर भ्रष्टाचार का नंगा नाच खेला जा रहा है।
        देश में प्राकृतिक संसाधनों का दोहन चरमसीमा पर होने के कारण प्राकृतिक प्रकोप उफान पर है। प्राकृतिक प्रकोप के कारण उत्तरांचल में हजारों जाने गई, लाखों बर्बाद हो गये, करोंड़ों का नुकसान हो गया, लेकिन तब भी हम प्रकृति से छेड़-छाड़ करना बंद नहीं कर रहे हैं।
       

लुढ़कना

                         लुढ़कना

        हमारा राष्ट्रीय चरित्र ही लुढकना है। इसलिये यदि देश का रूपया तेजी से विदेशी मुद्रा के मुकाबले लुढ़क रहा है तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं। रूपया रोज देश में भ्रष्टाचार के बढ़ते आंकड़े की तरह नये रिकार्ड बना रहा है। लोग कह रहे हैं कि रूपया लुढ़कने की यही गति जारी रही तो सौ रूपया एक डालर पौंड के बराबर हो जायेगा इसमें भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
        हमारे देश में सब कुछ लुढ़क-फुढ़क रहा है। पूरा देश लुढकने की कगार पर है। हम आंतकवाद, नक्सलवाद की ओर लुढक रहे हैं। हममें क्षेत्रियता, धार्मिकता, सांप्रदायिकता, जातियता की भावना लुढक गई है। हमारा राष्ट्रीय चरित्र भ्रष्टाचार में तर हो गया है । भ्रष्टाचार लुढक कर देशवासियों के खून में समा गया है।
        हमारे देश के राजनीतिज्ञों नीति निर्धारकों का चरित्र लुढ़काव की चरमसीमा पर है उनके चरित्र पतन के लुढ़कने का कोई मुकाबला नहीं कर सकता है उनका चाल, चरित्र, चेहरा,  सब कुछ लुढ़कना दर्शाता है।
        हमारे देश की सीमा में असुरक्षा लुढक गई है। सीमा के अंदर घुसकर आंतकवादी आकर गर्दन काटकर ले जाते हैं। हम अपनी सुरक्षा में कुछ कदम नहीं उठा पाते हैं देश की सीमा के अंदर घुसकर दुशमनी ताकतें घुसपैठ करती हैं। हम शांति, एकता, अखण्डता, भाईचारा, विश्वशांति के नाम पर चुप रहते हैं। विदेशी, दुश्मनी ताकतें, देश के अंदर लुढ़ककर देशद्रोहियों के साथ मिलकर देश की एकता अखण्डता को खोखला कर रही है।
        हमारे देश में शिक्षा का स्तर लुढ़का है। शालीनता लुढकी है, शुचिता लुढ़की है, अश्लीलता ने पैर पसारे हैं। सिनेमा, टी0व्ही0 सीरियल, इंटरनेट अश्लीलता, फूहड़ता परोस रही हैं। 
        हम अनैतिकता, असमाजिकता और असहिष्णुता की ओर लुढक रहे हैं। परिवार में बुजुर्ग बोझ और निर्जीव वस्तु बनते जा रहे हैं, उन्हंे अब कोई अनुभव की किताब, दुआओं का बैंक, आार्शीवाद की खान मानने को तैयार नहीं हैं यही कारण है कि हम सामाजिक विघटन की ओर लुढककर आश्रयगृह, वृद्धा आश्रम की ओर बढ रहे हैं ।
        हमारे देश में इन्सानियत लुढ़की है। इन्सान लुढ़का है। ईमान लुढ़का है। ईमानदारी लुढ़की है। सब तरफ लुढ़कन का दौरा जारी है जो हमें आर्थिक परतंत्रता, राजनैतिक, पराधीनता, सामाजिक असमानता, नरक की हैवानियत की ओर ले जा रहा है। हम परतंत्र भारत की तरह गुलाम बनकर जातिवाद, अंध विश्वास की ओर पूर्व की तरह लुढ़कते, सरकते, फिसलते नजर आ रहे हैं। दहेज बालविवाह, घरेलू हिंसा, बलात्कार, गैंगरेप सभी समाज का आवश्यक अंग हो गये हैं।   

































// बी0पी0एल0//

    // बी0पी0एल0//

        हमारे देश में बी.पी.एल. शब्द बहुत लोकप्रिय है । इसमें देश के बडे-बडे नेता, धनी, कुबेर, जमींदार शामिल हैं। जो इसकी जमात में शामिल होकर, इसका कार्ड बनवाकर गरीबों की सुख-सुविधाऐं, आनन्द प्राप्त करते हैं और उनका राशन अपने नाम से खाते हैं। उनके मिट्टी के तेल से अपने घर के चिराग जलाते हैं ।
        देश में अत्यन्त गरीब लोगों के लिये बी0पी0एल0 कार्ड बनाये जाते हैं। योजना आयोग ने जो गरीबी की परिभाषा दी है, उसके अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में प्रतिमाह आय 816/-रूपये और शहरी क्षेत्र में प्रतिमाह एक हजार रूपये से कम आय वाले परिवार को गरीबी की रेखा के नीचे माना गया है। इसी प्रकार ग्रामीण इलाके के लिये 4080/-रूपये वार्षिक आय से नीचे वाले व्यक्ति गरीबी के रेखा के नीचे आएगा। यदि आदमी की आय 500/-रूपये से कम है तो 6000/-रूपये सालाना आय वाले व्यक्ति का बी0पी0एल0 राशन कार्ड नहीं बनेगा।
         ऐसी स्थिति में देश के लाखों करोड़ो लोग जो 20/-रूपये प्रतिदिन कमाते हैं वे बी0पी0एल0 कार्डधारी नहीं बन सकते। जबकि रोजगार के साधन न होने से ऐसे लोगों को इस कार्ड की ज्यादा आवश्यकता है।
        बी.पी.एल. का अर्थ भी सबके लिये अलग-अलग हैं । अर्थशास्त्र में इसका अर्थ ‘‘बिलो पावर्टी लाइन‘‘ है वो राजनीतिशासत्र में इसका तात्पर्य ‘‘बिना पैंदी का लोटा है‘‘, जिसका अनुसरण शतप्रतिशत अनुयायी करते हैं।
        हमारे देश निर्माताओं की ‘‘लोटे की तरह लुढ़कने‘‘ की जगप्रसिद्ध इस आदत से हम सब परिचित हैं। लेकिन देश का आम आदमी भी इस ‘‘लुढ़कन‘‘ से प्रदूषित हो गया है और वह भी जहाॅं पैसा, सुविधा, फायदा, लाभ देखता है, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, क्षेत्रवाद, नस्लवाद, जातिवाद की फिसलन पर लुढक जाता है ।
        हमारे देश के कर्णधारों का तो जन्मसिद्ध अधिकार ही वोट, कुर्सी, सत्ता, पद के लिये लुढ़कना है, लेकिन उनके लुढकने, खिसकने, फिसलने की कोई सीमा तय नहीं रहती है । वो अनैतिकता की सीमा को भी लांग कर नहीं रूकते हैं ।
        लेकिन हमारे देश में आम नागरिक को अपनी लुढ़कन पर नियंत्रण रखना चाहिये, उसे देश की अस्मिता को दांव पर लगाकर देश के खैवनहारों की तरह नैतिकता, ईमानदारी , देशभक्ति को ताक पर रखकर नहीं लुढ़कना चाहिए।
        आज हम देश की फिसलन, लुढकन, डूबत के लिये एक-दूसरे को दोष दे रहे हैं। घूम फिरकर एक व्यक्ति विशेष और वर्ग पर आकर अपनी बात समाप्त कर देते हैं। सारा दोष, जिम्मा, जवाबदारी उन पर डालकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं।
        ये व्यक्ति विशेष कौन हैं ? ये हमारी ही उपज हैं, हमारे ही नीतियों से उत्पन्न हुये जयचंद, मीरकासिम हैं, हम ही चुनकर इन्हें आम से खास बनाते हैं। हम ही इनके जनक हैं। हम जो करना चाहते हैं, हम जो सुविधाएॅ चाहते हैं। उसी के आधार पर यह नीति निर्धारित करते हैं। फिर भी हम इनसे ही सबसे ज्यादा हैरान परेशान हैं और यह ही सबसे ज्यादा दागी समाज में हैं।
        हम अपना चुनाव सही क्यों नहीं करते हैं ? जब हमें चुनने का अवसर प्राप्त होता है तब हम सूरदास बनकर कंस का चुनाव करते हैं और उसके बाद उसकी ‘‘रावणनीति‘‘ को लेकर रोते रहते हैं ।
        यह अवश्य है कि हमारे पास चुनने की सीमा नहीं हैं। जितने आते हैं सब उस वर्ग में शामिल होकर सब दागी-बागी, सांपनाथ, नागनाथ हो जाते हैं लेकिन उनमें सबसे कम बागी को चुनकर अपना चुनाव सुधारा जा सकता है अथवा इन सबमें से किसी को न चुनकर भी अपना अभिमत दिया जा सकता है। अथवा इनके बीच अपने को प्रस्तुत करके भी देश की ...........
को कम किया जा सकता है।
        हमारे देश की लुढ़कन, डूबत, फिसलन के लिये सब एक-दूसरे को दोष दे रहे हैं। सब एक-दूसरे को उत्तरदायी बता रहे हैं। लेकिन मौका मिलने पर कोई भी चैका मारने में पीछे नहीं हैं, सब मौका मिलते ही फिसलने, लुढकने, खिसकने, उफनने, तैरने, डूबने, गोता लगाने में देर नहीं करते हैं।
        इसके बाद भी सबकी उंगलियां एक-दूसरे पर तनी हुई हैं। एक दूसरे को शक की निगाह से देख रहे हैं। लेकिन कोई भी अपनी तरफ ध्यान देकर देखने तैयार नहीं हैं। सब मेहनत, मजदूरी की जगह आराम की नौकरी चाहते हैं। सरकारी नौकरी के लिये सिफारिश, लेन-देन के लिये तैयार रहते हैं। सब कानून व्यवस्था में छेद बनाकर अपनी जगह बनाना चाहते हैं ।
        आज कोई भी ईमानदारी का हैलमेट पहनकर, सदाचार का लायसेंस लेकर, चरित्र का बीमा कराकर, देश प्रेम का परमिट लेकर, नैतिकता का रजिस्टेªशन करवाकर, देशभक्ति की  फिटनेस के साथ चलना नहीं चाहता है।
        जिसे देखो वह बेईमानी की सडक पर चलकर, भ्रष्टाचार के वाहन में सवार होकर, अनैतिकता की स्पीड से चलकर, विकास की मंजिल, प्रगति की टेªनें, सुविधाओं की गाड़ी, धन का पहाड़, ताजमहल जैसा आशियाना चाहता हैं।
        वह जानता है कि ताजमहल अन्य से एक सुन्दरी स्त्री की कब्रगाह बस है, लेकिन वह लोगों को ताजमहल की तरह अपनी बाहरी खूबसूरती, बुलन्दता, ऐश्वर्य, यश सम्मान है इसलिये नैतिकता की अन्धी फिटनेस दौड़ में फिसल रहा है।
        इसलिये आवश्यक है कि हम सुधरें, अपने को सुधारे, हम सुधरेगें तो समाज सुधरेगा, समाज सुधरेगा तो देश सुधरेगा। जब तक हम खुद को नहीं सुधारते तब तक हम किसी को सुधारने का भाषण, उपदेश भी नहीं दे सकते हैं ।
        आज देश के तमाम धर्मगुरू, खाऊ अफसर, उडाऊ नेता सब हमारी देन हैं। इन भष्मासुर को हमने ही समाज में पैदा किया है। हमंे ही इन्हें भस्म करना होगा। इसके लिये संपूर्ण समाज को शिव, विष्णु की तरह मोहनी बनना पड़ेगा। जब दस रावण को एक राम मार सकता है तो देश के एक सौ बीस करोड राम इन चंद भष्मासुरों का अंत कर सकते हैं, अगर हम इनके पीछे पड जायें तो यह भष्मासुर खुद अपने सिर पर अपना हाथ रखकर भष्म हो जायेंगे ।
       











       

हम आजाद है कि .........................................

हम आजाद है कि .........................................



            देश को आजाद हुये 66 वर्ष हो गये हैं, लेकिन अभी देश की लगभग 65 प्रतिशत आबादी दो समय का पोषण आाहर कमाकर खाने में असमर्थ हैं, उसके लिये खाद्य सुरक्षा बिल पास हुआ है। लगभग 35 प्रतिशत आबादी अत्यन्त गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करती है। लगभग 50 प्रतिशत लोग अभी भी अशिक्षित हैं और उनमें से कुछ लोग शिक्षा के नाम पर केवल अपना नाम लिखना जानते हैं। देश की लगभग 30 प्रतिशत आबादी बेरोजगारी का दंश झेल रही है।
        इसके बाद भी हम अपने को पूरी तरह आजाद मानते हैं। हमें पूरी आजादी है कि हम सरकारी नियम, कायदे कानून को न माने और सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान करें, गदंगी फैलाये , सड़क किनारे लघुशंका करें दिशा मैदान जाये लेकिन अपने घर में सेप्टीकटंेक का निर्माण न करें।
        हमारे देश के कर्णधारों, नीतिनिर्धारकों, खेवनाहारों, नौकरशाह, ब्यूरोक्रेट, को आजादी है कि वह देश की जनता को मनमाने ढंग से लूटे, कोई भी काम बिना लेनदेन के न करें, और काम की कीमत अनुसार वसूली करें, हमें आजादी है कि हम आम जनता को जरूरत से ज्यादा तंग करें ताकि वह टेबिल के नीचे से दलाल मध्यस्थ के माध्यम से अधिक पैसा देकर काम करवायंे।
        हमें आजादी है कि जितना वेतन, सुविधा, मानदेय, प्राप्त होता है, उसके अनुसार काम न करें। अपने कार्यालयीन समय में मोबाईल पर बात कर अपना और लोगों का समय बर्बाद करें। सरकारी काम की जगह व्यक्तिगत कार्य में समय बर्बाद करें। हमें आजादी के नाम पर हर वो गलत काम करवाने की आजादी है जो हमारे लिये लाभप्रद है।
        हमें बिजली की चोरी की आजादी है, सरकारी जल, जंगल, जमीन हड़पने और अतिक्रमण करने की आजादी है। हमें रेत उत्खनन, खनिज चुराने की आजादी है।
        हमें आजादी है कि हम यातायात नियमों का उल्लंघन कर सड़क पर बिना लायसेंस, परमिट, रजिस्टेªशन  के वाहन चलाये तथा पकड़े जाने पर दमदार लोगों से फोन करवाकर दम पड़वाने की आजादी है। हमें आजादी है कि हम व्ही0आई0पी0 बनकर, व्यवस्था से हटकर, सभी नियम कानून तोड़कर अपना काम करवायें।
        हमें आजादी है कि हम सरकारी संपत्ति अपने पिता की संपत्ति समझ कर उसे नष्ट करें, बर्बाद करें। हमें आजादी है कि हम राजा महाराजाओं द्वारा निर्मित किलें, मंदिर, ऐतिहासिक इमारतों को नष्ट करें, उन पर अपना प्यार कर इजहार कर उसे सार्वजनिक करें।
        हमें आजादी है कि हम नकली दवा बेंचे, पेट्रोल में मिट्टी का तेल मिलाकर बेंचे, टैक्स चोरी करें तथा काम करवाने के बाद मजदूरी न दें, हमें पर्यावरण प्रदूषित करने की आजादी, मैच फिक्सिंग कर देश का तिरंगा लजाने की आजादी है।
        देश के दुखहन्ताओं की  आजादी है कि वह खेल, कफन, कोयला, तेल, तोप के नाम पर घपला और घोटाला करें। देश की जनता की लाखों करोड़ो की कमाई खा जावे और जनता को पूर्व की तरह भुखमरी के आधीन पराधीन रहने दें, उन्हें देश को दीमक की तरह खोखला करने की आजादी है।
        हमारे देश के निर्माताओं को आजादी है कि वह देश की नीति निर्धारण संस्थाओं में लड़कर उसे अखाड़ा बनाये और देश की जनता की आर्थिक, सामजिक, राजनीतिक नीतियों, सुविधाओं के साथ दंगल करें तथा जनता को पूर्व की तरह मूल अधिकारों से वंचित करंें और एहसास कराये कि आजादी छीनने वाले चले गये लेकिन अपनी दमनकारी नीतियाॅ छोड़ गये।
        हमारे विघ्नकर्ताओं को आजादी है कि सत्ता के मोह और लालच में, कुर्सी के लोभ और होड़ में पद की चाहत और प्यार में लालबत्ती की चाह और राह में आज जनता को जाति के नाम पर लड़वायें, धर्म के नाम पर दंगा फसाद करवायें, आतंक फैलाये, वोट के लिये नोट बांटे, धनबल, जनबल, गनबल, बाहुबल के आधार पर अभिमत प्राप्त करें।
        हमें आजादी नहीं है कि हम पूर्व की तरह सरकार की गलत नीतियों का विरोध करें। यदि आज हम पूर्व की तरह सरकार की कुनीतियों का का विरोध करते हैं तो हमें पहले की तरह लाठी पड़ती है। डन्डा खाने पड़ते हैं। झूठे मुकदमा झेलने पड़ते हैं। अदालत के चक्कर काटने पड़ते हैं। जेल की हवा खानी पड़ती है।
        देश को आजाद हुए 66 साल हो गये हैं लेकिन हमें अशिक्षा की पराधीनता तंग नहीं करती। भुखमरी नहीं सताती है। असमानता नहीं रूलाती है। दण्ड व्यवस्था का खौफ नहीं तंगाता है इसे जो लोग आजादी मानते हैं, उन्हें मूल अधिकारों की चाहत नहीं है। देश के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, हृास की चिंता नहीं है।
        अंग्रेजी दासता समाप्ती के बाद हमने मुंगेरीलाल के हसीन सपने देखे थे कि हम अपने तौर-तरीके से देश चलायेंगे, लोगों को सम्मान प्राप्त होगा, मूल अधिकार प्राप्त होंगे, बुराईयों से स्वतंत्रता मिलेगी लेकिन आज हम ऐसी आजादी से सैकड़ों साल दूर हैं।























// उफान //


// उफान //

        हमारे देश में हर चीज उफान पर है । मंहगाई तूफान पर है । रूपये की अंर्ताराष्ट्र्ीय कीमत चढान पर है । पेट्र्ोल-डीजल की कीमते खौल रही हैं । खाने की वस्तु जला रही हैं । दूध, खाद्य तेल उबाल पर हैं । इन सब तूफानों के बीच देश का आम गरीब आदमी अपनी नैया पार करने की कोशिश कर रहा है ।
        देश में न्याय, शिक्षा, आहार, आवास जैसी बुनियादी सुविधाएं मंहगी हैं।  शिक्षा पर मंहगाई का ग्रहण लगा है । लाखों रूपये आवश्यक कोर्स की कीमत है । अस्पताल के बिल, फाईव स्टार होटल के, केश मेमो की याद दिलाते हैं । दबाओं की कीमतें उफान पर हैं । जल, जंगल, जमीन की कीमतें, बिजली के बिल की तरह करंेट मारती है। एक आम वेतनभोगी के जिन्दगी भर के वेतन से ज्यादा अर्फोडेबल हाउस की कीमत है।
        देश में अशलीलता उफान पर है। सिनेमा, टी.व्ही सीरियल, चैनल, अश्लीलता, अंधविश्वास हमारे बेडरूम और डायनिंग टेबिल पर परोस रहे हैं। दिन मंे जो चैनल अंधविश्वास, भूतप्रेत, तंत्र-मंत्र जादू टोना का विरोध करतें हैं वहीं रात में लाखों करोडों रूपये का विज्ञापन प्रचार प्रसार में कोई कमी नहीं छोड़ते हैं। वे ढोंगी, पाखंडी, बाबाओं के निर्मल दर्शन कराते हैं । टोने टोटके, जादूटोने के नाम पर यंत्र बिकवाते हैं। श्री लक्ष्मीयंत्र धनवृद्वि ताबीज, कुबेर  कुंजी  बिकवाकर अपनी धनवृद्धि करते हैं। राम राज्य की आशा जगाकर अंधश्रद्धा का प्रचार करते हैं।
        देश में भ्रष्टाचार उबाल पर है। विकेन्द्रीकरण के कारण पंचायत, नगर पंचायत, नगरपालिका, नगरनिगम आदि स्वायत संस्थाएॅ भ्रष्टाचार का साधन और साध्य बन गई हंैं। आम जनता में विकास की सड़क एवं शिक्षा की रोशनी जगाने के नाम पर भ्रष्टाचार का नंगा नाच खेला जा रहा है।
        देश में प्राकृतिक संसाधनों का दोहन चरमसीमा पर होने के कारण प्राकृतिक प्रकोप उफान पर है। प्राकृतिक प्रकोप के कारण उत्तरांचल में हजारों जाने गई, लाखों बर्बाद हो गये, करोंड़ों का नुकसान हो गया, लेकिन तब भी हम प्रकृति से छेड़-छाड़ करना बंद नहीं कर रहे हैं।