व्यंग्य
दिशा मैदान और तीर कमान
हमारे देश में दिशा मैदान और तीर कमान का चोली दामन का साथ है। जब भी पेट दर्द करे तो पहले तीर चलाये उसके बाद जहाॅ पर तीर गिरे वहाॅ गड्ढा खोदें। अपना वजन कम करें उसके बाद गड्ढे में मिट्टी घास फूंस डालकर उसे हाइजैनिक तरीके से ढककर आ जायें ।
ऐसा करने से आपके पूर्वज खुश हो जाएंगे। हजारों साल पुरानी पौराणिक शौच कर्म काण्ड की कथा पूर्ण हो जायेगी और आपको प्रत्येक दिन ऐसा करने से इस जन्म के बाद मोक्ष प्राप्त होगा।
भले ही आप खुले में शौच करने से जीते जी डायरिया मलेरिया, टायफाइड, डेंगू से मर जाये लेकिन मोक्ष के चक्कर में अपने घर में न तो शौचालय बनवाये न ही शौंच करने जाये ।
हमारे देश में 50प्रतिशत से अधिक आबादी इसी पौराणिक क्रियाकर्म पर चल रही है। देश को आजाद हुये 67 साल से ज्यादा का समय हो गया है । लेकिन उसके बाद ही उतने ही प्रतिशत लोग खुले में शौंच का आनंद ले रहे हैं।
देश के गांव में तो शत-प्रतिशत आबादी खुली हवा में जानवरों की तरह मलमूत्र त्यागने की आदी है ही, लेकिन शहरी बाबू भी इनसे कम नहीं हैं । सुबह-सुबह प्रभाकर के पर्दापण के साथ ही वे भी आसपास की नदी नाले पोखर को शुद्ध कर आते हैं।
हम निर्मल भारत नहीं बनाना चाहते। लाखों का मकान गांव में बनवाएंगे, करोंड़ो के स्कूल, अस्पताल, काॅलेज, शहर में बनवाएंगे, लेकिन अलग से कभी भी पर्याप्त संख्या मंें शौचालय नहीं बनवाएंगे और यदि दो-चार बना भी दिये जाते हैं तो, अलग से एक भी महिला शौचालय नहीं बनाया जाता है।
हमारे देश में स्त्री को अपने परिवार की इज्जत, नाक, मूंछ माना जाता है। लेकिन उसके शौच की कोई व्यवस्था घर में नहीं की जाती है। उसकी इज्जत के लिये खून बहा दिया जायेगा, लेकिन घर में शौचालय नहीं बनवाएंगे। उसके विवाह में लाखों का दहेज देने की योजना पैदा होते ही बना लेंगे, लेकिन उसके शौचालय की व्यवस्था घर में नहीं करते हैं।
यही कारण है कि हमारी इस पुरातनी व्यवस्था के कारण घर की इज्जत के साथ खुले में शौंच करने के कारण बलात्कार छेड़छाड़ की घटनायें घटित होती है। लेकिन इसके बाद भी इन घटनाओं से सीख लेकर अपनी नाक नहीं संभालते हैं और घर में निर्मल शौंच की व्यवस्था नहीं करते हैं।
यही कारण है कि आज भारत में 70 प्रतिशत खुले में शौंच जाने वाली महिलाए यौन हमले, प्रताड़ना की शिकार होती हैं । जिनमें से 24 प्रतिशत महिलाओं के साथ बलात्कार जैसी अमानवीय घटना घटित होती हैं । जिनमें से अधिकांश कम उम्र की नाबालिग, नासमझ बच्चियों की संख्या अधिक है।
हम नारी की अस्मिता को घूंघट से नापते हैं और उसे खुले में शौंच की छूट देकर भारतीय समाज में व्याप्त धार्मिकता से जुड़ी दोहरी उस मानसिकता का परिचय देते हैं। जिसमें राधा को प्रेमिका के रूप में पूजा जाता है। लेकिन उसके द्वारा प्रेम विवाह करने पर उसे खाप पंचायत की बली चढ़ा दी जाती है।
हम शहर हो या गांव सब जगह स्वच्छता कार्यक्रम की जिम्मेदारी वोट देने के बाद सरकारी संस्थाओं और सदस्यों पार्षद, सरपंच, सचिव, विधायक, सांसद आदि जनप्रतिनिधियों पर छोड़ देते हैं और उनकी जिम्मेदारी बढ़ाने अपने घर के अन्दर का कचड़ा घर के सामने फेंककर उनकी अग्निपरीक्षा लेते हैं।
यही कारण है कि आज हम आजादी के 67-68 साल बाद भी घर के बाहर शौंच कर रहे हैं और इस मानसिकता में जी रहे हैं कि सरकार इसके विरूद्ध व्यवस्था करेंगी जबकि यह कार्य घर परिवार की अन्दरूनी जिम्मेदारी से जुड़ा कार्य है । इस समस्या का हमें खुद ही हल घर में शौचालय बनाकर निकालना चाहिये।
देश की जनता की गाढ़ी कमाई निर्मल भारत अभियान में बर्बाद नहीं होना चाहिये बल्कि खुद सोच बदलकर घर परिवार निर्मल करना चाहिये। यह अवश्य है कि खुले में शौंच करना हमारी धर्म-संस्कृति से जुड़ी समस्या है। इसलिये इस धार्मिक कुरीति को दूर करने के लिये एक सामाजिक क्रांति और धार्मिक परिवर्तन की आवश्यकता है।
हमें परिवार की लड़कियों का विवाह उन घरों में नहीं करना चाहिये जिन घरों में शौचालय नहीं हैं। जिस गांव में शौचालय नहीं उस गांव में विवाह नहीं का सूत्र अपनाना चाहिये।
हमारे देश में यह भी देखने में आया है कि घर अथवा आसपास शौचालय होने के बाद भी लोग खुले में शौंच जाना अधिक स्वास्थ्यप्रद और सुविधाजनक समझते हैं। इससे उन्हें गन्दी प्रदूषित वायु मिल जाती है । बीड़ी सिगरेट तम्बाखू, ड््रग्स पीने मिल जाता है। इसलिये ऐसे लोग खुले में शौंच को प्राथमिकता प्रदान करते हैं।
स्वच्छता, स्वास्थ्य और इसके प्रति लोगों की सोच में परिवर्तन तथा जागरूकता एक ही पांसे के चार पहलू हैं। इस पांसे को फेंककर ही एक साथ इस समस्या का निपटारा किया जा सकता है । जब तक इन चार बिन्दुओं पर एक साथ कार्य नहीं किया जायेगा, तब तक निर्मल भारत की कल्पना हम नहीं कर सकते हैं।
भारत में जो शौंचालय हैं उन्हें भी हम जंगल का मैदान बना देते हैं । शौंच निवृत्ति के बाद हम पानी डालना भूल जाते हैं । यही कारण है कि जितने शौचालय बनाये गये हैं । वे भी कुछ दिनों के बाद गंदगी का ढेर बनकर बीमारियों का पिटारा समेटकर किसी काम के नहीं रह जाते हैं। हमें इस मानसिकता को भी बदलना पड़ेगा।
हमें सुलभ शौंचालय में पैसा देने में हमारी जान निकलती है। जो काम हम निःशुल्क खुली हवा करते हैं । उसके लिये हमें पैसा देना अखरता है। हमें इस धारणा को भी बदलना होगा। जब स्वच्छ पानी की बोतल पैसे से खरीद सकते हैं तो स्वास्थ्य और स्वच्छता के लिये पैसा देने में पीछे नहीं रहना चाहिये।
इसके अलावा हमें अपनी पांच हजार साल पुरानी, पुरातनी, पंडिताई सोच को भी बदलना होगा कि घर में शौंचालय नहीं होना चाहिये । यदि शौंचालय होगा तो इससे छुआछूत गंदगी बढ़ेगी और ऐसे लोगों का प्रवेश होगा जिनकी छाया देखना भी उस समय पाप समझा जाता था। लेकिन आज इक्कीसवीं सदी जी रहे हैं । जहाॅ पर गांव गांव बिजली पानी सड़क उपलब्ध हैं। वहाॅ पर हम घर-घर शौचालय भी उपलब्ध करा सकते हैं। इसलिये हमें इस पुरातनी सोच, मानसिकता, धार्मिकता को सामाजिक क्रांति लाकर बदलने की आवश्यकता है।
दिशा मैदान और तीर कमान
हमारे देश में दिशा मैदान और तीर कमान का चोली दामन का साथ है। जब भी पेट दर्द करे तो पहले तीर चलाये उसके बाद जहाॅ पर तीर गिरे वहाॅ गड्ढा खोदें। अपना वजन कम करें उसके बाद गड्ढे में मिट्टी घास फूंस डालकर उसे हाइजैनिक तरीके से ढककर आ जायें ।
ऐसा करने से आपके पूर्वज खुश हो जाएंगे। हजारों साल पुरानी पौराणिक शौच कर्म काण्ड की कथा पूर्ण हो जायेगी और आपको प्रत्येक दिन ऐसा करने से इस जन्म के बाद मोक्ष प्राप्त होगा।
भले ही आप खुले में शौच करने से जीते जी डायरिया मलेरिया, टायफाइड, डेंगू से मर जाये लेकिन मोक्ष के चक्कर में अपने घर में न तो शौचालय बनवाये न ही शौंच करने जाये ।
हमारे देश में 50प्रतिशत से अधिक आबादी इसी पौराणिक क्रियाकर्म पर चल रही है। देश को आजाद हुये 67 साल से ज्यादा का समय हो गया है । लेकिन उसके बाद ही उतने ही प्रतिशत लोग खुले में शौंच का आनंद ले रहे हैं।
देश के गांव में तो शत-प्रतिशत आबादी खुली हवा में जानवरों की तरह मलमूत्र त्यागने की आदी है ही, लेकिन शहरी बाबू भी इनसे कम नहीं हैं । सुबह-सुबह प्रभाकर के पर्दापण के साथ ही वे भी आसपास की नदी नाले पोखर को शुद्ध कर आते हैं।
हम निर्मल भारत नहीं बनाना चाहते। लाखों का मकान गांव में बनवाएंगे, करोंड़ो के स्कूल, अस्पताल, काॅलेज, शहर में बनवाएंगे, लेकिन अलग से कभी भी पर्याप्त संख्या मंें शौचालय नहीं बनवाएंगे और यदि दो-चार बना भी दिये जाते हैं तो, अलग से एक भी महिला शौचालय नहीं बनाया जाता है।
हमारे देश में स्त्री को अपने परिवार की इज्जत, नाक, मूंछ माना जाता है। लेकिन उसके शौच की कोई व्यवस्था घर में नहीं की जाती है। उसकी इज्जत के लिये खून बहा दिया जायेगा, लेकिन घर में शौचालय नहीं बनवाएंगे। उसके विवाह में लाखों का दहेज देने की योजना पैदा होते ही बना लेंगे, लेकिन उसके शौचालय की व्यवस्था घर में नहीं करते हैं।
यही कारण है कि हमारी इस पुरातनी व्यवस्था के कारण घर की इज्जत के साथ खुले में शौंच करने के कारण बलात्कार छेड़छाड़ की घटनायें घटित होती है। लेकिन इसके बाद भी इन घटनाओं से सीख लेकर अपनी नाक नहीं संभालते हैं और घर में निर्मल शौंच की व्यवस्था नहीं करते हैं।
यही कारण है कि आज भारत में 70 प्रतिशत खुले में शौंच जाने वाली महिलाए यौन हमले, प्रताड़ना की शिकार होती हैं । जिनमें से 24 प्रतिशत महिलाओं के साथ बलात्कार जैसी अमानवीय घटना घटित होती हैं । जिनमें से अधिकांश कम उम्र की नाबालिग, नासमझ बच्चियों की संख्या अधिक है।
हम नारी की अस्मिता को घूंघट से नापते हैं और उसे खुले में शौंच की छूट देकर भारतीय समाज में व्याप्त धार्मिकता से जुड़ी दोहरी उस मानसिकता का परिचय देते हैं। जिसमें राधा को प्रेमिका के रूप में पूजा जाता है। लेकिन उसके द्वारा प्रेम विवाह करने पर उसे खाप पंचायत की बली चढ़ा दी जाती है।
हम शहर हो या गांव सब जगह स्वच्छता कार्यक्रम की जिम्मेदारी वोट देने के बाद सरकारी संस्थाओं और सदस्यों पार्षद, सरपंच, सचिव, विधायक, सांसद आदि जनप्रतिनिधियों पर छोड़ देते हैं और उनकी जिम्मेदारी बढ़ाने अपने घर के अन्दर का कचड़ा घर के सामने फेंककर उनकी अग्निपरीक्षा लेते हैं।
यही कारण है कि आज हम आजादी के 67-68 साल बाद भी घर के बाहर शौंच कर रहे हैं और इस मानसिकता में जी रहे हैं कि सरकार इसके विरूद्ध व्यवस्था करेंगी जबकि यह कार्य घर परिवार की अन्दरूनी जिम्मेदारी से जुड़ा कार्य है । इस समस्या का हमें खुद ही हल घर में शौचालय बनाकर निकालना चाहिये।
देश की जनता की गाढ़ी कमाई निर्मल भारत अभियान में बर्बाद नहीं होना चाहिये बल्कि खुद सोच बदलकर घर परिवार निर्मल करना चाहिये। यह अवश्य है कि खुले में शौंच करना हमारी धर्म-संस्कृति से जुड़ी समस्या है। इसलिये इस धार्मिक कुरीति को दूर करने के लिये एक सामाजिक क्रांति और धार्मिक परिवर्तन की आवश्यकता है।
हमें परिवार की लड़कियों का विवाह उन घरों में नहीं करना चाहिये जिन घरों में शौचालय नहीं हैं। जिस गांव में शौचालय नहीं उस गांव में विवाह नहीं का सूत्र अपनाना चाहिये।
हमारे देश में यह भी देखने में आया है कि घर अथवा आसपास शौचालय होने के बाद भी लोग खुले में शौंच जाना अधिक स्वास्थ्यप्रद और सुविधाजनक समझते हैं। इससे उन्हें गन्दी प्रदूषित वायु मिल जाती है । बीड़ी सिगरेट तम्बाखू, ड््रग्स पीने मिल जाता है। इसलिये ऐसे लोग खुले में शौंच को प्राथमिकता प्रदान करते हैं।
स्वच्छता, स्वास्थ्य और इसके प्रति लोगों की सोच में परिवर्तन तथा जागरूकता एक ही पांसे के चार पहलू हैं। इस पांसे को फेंककर ही एक साथ इस समस्या का निपटारा किया जा सकता है । जब तक इन चार बिन्दुओं पर एक साथ कार्य नहीं किया जायेगा, तब तक निर्मल भारत की कल्पना हम नहीं कर सकते हैं।
भारत में जो शौंचालय हैं उन्हें भी हम जंगल का मैदान बना देते हैं । शौंच निवृत्ति के बाद हम पानी डालना भूल जाते हैं । यही कारण है कि जितने शौचालय बनाये गये हैं । वे भी कुछ दिनों के बाद गंदगी का ढेर बनकर बीमारियों का पिटारा समेटकर किसी काम के नहीं रह जाते हैं। हमें इस मानसिकता को भी बदलना पड़ेगा।
हमें सुलभ शौंचालय में पैसा देने में हमारी जान निकलती है। जो काम हम निःशुल्क खुली हवा करते हैं । उसके लिये हमें पैसा देना अखरता है। हमें इस धारणा को भी बदलना होगा। जब स्वच्छ पानी की बोतल पैसे से खरीद सकते हैं तो स्वास्थ्य और स्वच्छता के लिये पैसा देने में पीछे नहीं रहना चाहिये।
इसके अलावा हमें अपनी पांच हजार साल पुरानी, पुरातनी, पंडिताई सोच को भी बदलना होगा कि घर में शौंचालय नहीं होना चाहिये । यदि शौंचालय होगा तो इससे छुआछूत गंदगी बढ़ेगी और ऐसे लोगों का प्रवेश होगा जिनकी छाया देखना भी उस समय पाप समझा जाता था। लेकिन आज इक्कीसवीं सदी जी रहे हैं । जहाॅ पर गांव गांव बिजली पानी सड़क उपलब्ध हैं। वहाॅ पर हम घर-घर शौचालय भी उपलब्ध करा सकते हैं। इसलिये हमें इस पुरातनी सोच, मानसिकता, धार्मिकता को सामाजिक क्रांति लाकर बदलने की आवश्यकता है।
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