Saturday, September 28, 2013

लुढ़कना

                         लुढ़कना

        हमारा राष्ट्रीय चरित्र ही लुढकना है। इसलिये यदि देश का रूपया तेजी से विदेशी मुद्रा के मुकाबले लुढ़क रहा है तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं। रूपया रोज देश में भ्रष्टाचार के बढ़ते आंकड़े की तरह नये रिकार्ड बना रहा है। लोग कह रहे हैं कि रूपया लुढ़कने की यही गति जारी रही तो सौ रूपया एक डालर पौंड के बराबर हो जायेगा इसमें भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
        हमारे देश में सब कुछ लुढ़क-फुढ़क रहा है। पूरा देश लुढकने की कगार पर है। हम आंतकवाद, नक्सलवाद की ओर लुढक रहे हैं। हममें क्षेत्रियता, धार्मिकता, सांप्रदायिकता, जातियता की भावना लुढक गई है। हमारा राष्ट्रीय चरित्र भ्रष्टाचार में तर हो गया है । भ्रष्टाचार लुढक कर देशवासियों के खून में समा गया है।
        हमारे देश के राजनीतिज्ञों नीति निर्धारकों का चरित्र लुढ़काव की चरमसीमा पर है उनके चरित्र पतन के लुढ़कने का कोई मुकाबला नहीं कर सकता है उनका चाल, चरित्र, चेहरा,  सब कुछ लुढ़कना दर्शाता है।
        हमारे देश की सीमा में असुरक्षा लुढक गई है। सीमा के अंदर घुसकर आंतकवादी आकर गर्दन काटकर ले जाते हैं। हम अपनी सुरक्षा में कुछ कदम नहीं उठा पाते हैं देश की सीमा के अंदर घुसकर दुशमनी ताकतें घुसपैठ करती हैं। हम शांति, एकता, अखण्डता, भाईचारा, विश्वशांति के नाम पर चुप रहते हैं। विदेशी, दुश्मनी ताकतें, देश के अंदर लुढ़ककर देशद्रोहियों के साथ मिलकर देश की एकता अखण्डता को खोखला कर रही है।
        हमारे देश में शिक्षा का स्तर लुढ़का है। शालीनता लुढकी है, शुचिता लुढ़की है, अश्लीलता ने पैर पसारे हैं। सिनेमा, टी0व्ही0 सीरियल, इंटरनेट अश्लीलता, फूहड़ता परोस रही हैं। 
        हम अनैतिकता, असमाजिकता और असहिष्णुता की ओर लुढक रहे हैं। परिवार में बुजुर्ग बोझ और निर्जीव वस्तु बनते जा रहे हैं, उन्हंे अब कोई अनुभव की किताब, दुआओं का बैंक, आार्शीवाद की खान मानने को तैयार नहीं हैं यही कारण है कि हम सामाजिक विघटन की ओर लुढककर आश्रयगृह, वृद्धा आश्रम की ओर बढ रहे हैं ।
        हमारे देश में इन्सानियत लुढ़की है। इन्सान लुढ़का है। ईमान लुढ़का है। ईमानदारी लुढ़की है। सब तरफ लुढ़कन का दौरा जारी है जो हमें आर्थिक परतंत्रता, राजनैतिक, पराधीनता, सामाजिक असमानता, नरक की हैवानियत की ओर ले जा रहा है। हम परतंत्र भारत की तरह गुलाम बनकर जातिवाद, अंध विश्वास की ओर पूर्व की तरह लुढ़कते, सरकते, फिसलते नजर आ रहे हैं। दहेज बालविवाह, घरेलू हिंसा, बलात्कार, गैंगरेप सभी समाज का आवश्यक अंग हो गये हैं।   

































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