// हरिकथा - हरि अनंता //
‘‘ उमेश कुमार गुप्ता ‘‘
व्यंग्य के श्री हरि परेशान थे, लोग उनकी व्यंग्य विधा को साहित्य की विधा नहीं मानते थे। इस कारण शंकर होते हुए भी लोग उन्हें पूजने तैयार नहीं थे । जबकि व्यंग्य के वे श्री गणेश थे। ऐसे में दुखी होना स्वाभाविक था। लेकिन श्री हरिशंकर परसाई की परेशानी ज्यादा दिन नहीं चली और परसाई जी ने व्यंग्य को साहित्य विधा का रूप दिलवा ही दिया ।
श्री परसाई समीक्षकों की इस बात से दुखी थे कि व्यंग्य पढ़ने के बाद लोग उसके सही रूप को जानकर भी अनजाने बने रहते हैं और बडा़ मजा आया, अच्छंे छक्के छुड़ा दिये, खूब खिचाई की, खाल खींचकर रख दी, क्या लिखा बोलती बंद कर दी, क्या बत्ती दी, हवा टाईट कर दी आदि प्रमाण पत्र व्यंग्यकारो को दिये जाते हैं जो आज भी सुनने को मिल रहे हैं ।
इन बातों से तो समीक्षकों को खुशी मिलती हैं, लेखक दुखी होता हैं, वह समझ नहीं पाता हैं कि उसके संदेश को जानने, समझने के बाद यह भांड वाली बात व्यंग्यकारों के बारे में समीक्षकों के द्वारा क्यों की जा रही हैं और इस प्रकार के प्रमाण पत्र क्यों दिये जा रहे हैं।
व्यंग्य जैसे गंभीर विषय को विनोद, हास्य, माखौल , मजा से जोड़ा जाता हैं । चोर अपने जैसे चोर को देखकर चोर कैसे कहेगा, वह तो उसे आदमी कहेगा यही हाल व्यंग्य का हैं। समीक्षक उसकी भाषा,शिक्षा, सार, अनुभव को लोगो तक कम ला पाते हैं। ऐसे में जनता जो कम पढ़ी लिखी हैं, उसकी सोचने समझने की शक्ति समाप्त हो गई यदि उसे समझाने का प्रयास करें तो व्यंग्य के साथ मजा आ गया, बखिया उधेड़ दी वाली बात नहीं जुडे़गी
कोई व्यंग्य लेखक व्यंग्य सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने या किसी को नीचा दिखाने अथवा अपमानित करने अपने हाथ से अपनी पीठ थपथपाने नहीं लिखता हैं। जिस व्यवस्था के सभी शिकार हैं, उस व्यवस्था का वह भी शिकार हैं। सब चुप हैं, उसमें साहस हैं, ताकत हैं, लड़ने की हिम्मत हैं। वह कलम उठा लेता हैं और व्यंग्यकार, कार्टूनिस्ट, जोकर, मसखरा, भांड लोगों की नजर बन जाता हैं।
यह भी व्यंग्य हैं कि अंधों को आॅख दो, लेकिन वे आॅख नहीं चाहते हैं । उन्हें अंधेपन में ही मजा आता हैं। उन्हें रास्ता दिखाओं वे चलना नहीं चाहते हैं। उन्हें अंधियारी गलियों में ही खुशी मिलती हैं। कौन व्यवस्था से लड़ने- झगड़ने- बोलने की सजा भुगते। आखिर कब तक चलेगा किसी को तो ह.श.प. बनना ही पड़ेगा।
दूसरो के कष्ट का ध्यान रखने वाले, दूसरों के दुख को अपना दुख समझने वाले परसाई जी की यही बीमारी थी। उन्होने नाम के अनुरूप दूसरो के दुख को अपना दुख समझा और उसकी व्यथा को व्यक्त किया और कुछ लोग समाज में ऐसे रहते हैं जो लातों के भूत हैं, बातों से नहीं मानते हैं, उन्हें कौटिल्य की भाषा में समझाईश दी जाए तो अच्छा रहता हैं। जिसकी आॅखों में पानी रहता हैं, उन्हें बातों से समझाया जा सकता हैं, जब आॅख का पानी ही मर गया फिर बात काम नहीं करती हैं।
हरि का दुख हरि जाने। नीलकंठी लेखक चाहता तो बिना नीला कंठ किये कविता, कहानी, उपन्यास में व्यथा भर सकता था, जो जिसके लिए व्यथा थी, जिसके संबंध में लिखा गया हैं, उसके लिए मजा बन गई, लेकिन व्यंग्य विधा अपनाकर, कंठ नीला कर, श्री परसाई ने व्यंग्य लेखन को ही चुना और व्यंग्यकार के रूप में विश्वप्रसिद्ध हो गये। व्यंग्य को साहित्य विधा का दर्जा दिलाया ।
व्यंग्य के सांई, हरि, शंकर, गणेश, ब्रम्हा, विष्णु सब कुछ का कहना हैं कि मनुष्य जटिल प्राणी हैं। उसके बाहरी और भीतरी रूप को बहुत समझना कठिन हैं, उसकी आशा-निराशा, भ्रम, अहंकार, स्वार्थ, त्याग, क्रोध, करूणा को समझना ही दिलचस्प अध्ययन हैं। श्री हरि ने घोर निराशा में मनुष्य को लड़ते देखा हैं। भ्रम की चादर ओढ़े गम को परखा हैं, आत्मवचंना के रंगीन महल में आदमी को आनंद से जिन्दगी गुजारते देखा हैं। जीवन की सार्थकता की खोज में जिदंगी कई रंगीन रूप लेती हैं। जिन्हें रेखाओं से बांधने का प्रयास किया हैं।
समाज में आवश्यक, चिर-परिचत जीव मुफ्तखोर,अनशनकारी,आईल किंग,बातूनी, दल-बदल वाले, पर ध्यान दिया गया हैं तो घायलबसंत, अकालउत्सव, हरिजन को पीटने यश, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, आदि राष्ट्र्ीय त्यौहारो का वर्णन किया हैं।
आदमी के नस में रच-बस गई बेईमानी की परत, पवित्रता का ढोंग, वैष्णव की फिसलन, दो नाक वाले लोग, ठंडा शरीफ आदमी की, उन्होने नब्ज पहचान कर उनको दर्पण दिखाया हैं।
व्यंग्य जैसे गंभीर विषय को विनोद, हास्य, माखौल , मजा से जोड़ा जाता हैं । चोर अपने जैसे चोर को देखकर चोर कैसे कहेगा, वह तो उसे आदमी कहेगा यही हाल व्यंग्य का हैं। समीक्षक उसकी भाषा,शिक्षा, सार, अनुभव को लोगो तक कम ला पाते हैं। ऐसे में जनता जो कम पढ़ी लिखी हैं, उसकी सोचने समझने की शक्ति समाप्त हो गई यदि उसे समझाने का प्रयास करें तो व्यंग्य के साथ मजा आ गया, बखिया उधेड़ दी वाली बात नहीं जुडे़गी ।
आदमी व्यंग्य में हास्य कविता चाहता हैं। कहाॅ से मिलेगी। कुनैन की दुकान में जलेबी चाह रहे हैं और कुनैन की जलेबी समझकर खा भी रहे हैं। कहाॅ से मलेरिया भगेगा, उल्टा डाॅक्टर को गाली दे रहे हो। खाल खींचकर रख दी कहकर उसके दर्शन को अपमानित कर रहे हो। उसके चिन्तन के साथ खिलवाड़ किया जा रहा हैं ।
श्री हरि कटु, निर्मल और धोबी पछाड़ आदमी थे। वे चूहों पर सोये, मनुष्यनुमा विच्छुओं और साॅपों ने उन्हें काटा पर समाज बेचारा परसाई पैदा नहीं कर पाया।उनका मानना था कि वे निहायत बेचैन मन का संवेदनशील आदमी हैं उन्हें चैन कभी मिल ही नहीं सकता । इसलिये गर्दिश उनकी नियति हैं। बिना टिकिट सफर करना उधार मांगने की कला, वेफिक्री, कोई चिंता नहीं, जैसे गुरूमंत्र , रोना नहीं हैं लड़ना हैं, डर गये तो मर गये के मूल मंत्र के साथ व्यंग्य लेखन शुरू कर दिया और कई बेचारो के बीच अपने को बेचारा न पाकर, कई कष्ट, संघर्षो के बीच अपने संघर्ष को संघर्ष न मानकर लड़ना प्रारंभ किया।
उनका मानना था कि मुक्ति अकेले की नहीं होती। अलग से अपना भला नहीं हो सकता। मनुष्य की छटपटाहट हैं मुक्ति के लिए, सुख के लिए, न्याय के लिये । पर यह बड़ी लडाई अकेले नहीं लड़ी जा सकती हैं। अकेले वही सुखी हैं, जिन्हें कोई लड़ाई नहीं लड़नी । उनकी बात अलग हैं। अनगिनत लोगों को सुखी देखता हूॅं और अचरज करता हूॅं कि ये सुखी कैसे हैं। न उनके मन में सवाल उठते, न शंका उठती हैं। ये जब तब सिर्फ शिकायत कर लेते हैं। शिकायत भी सुख देती हैं। और वे ज्यादा सुखी हो जाते हैं।
लेखक ने व्यक्तित्व की रक्षा, अविशिष्ठ होने से बचने का रास्ता , दुनिया से लड़ने का हथियार बनाया और उसे व्यंग्यात्मक लेखन को ढाल बनाकर, गरीबी, बेकारी, भूखमरी, भ्रष्टाचार, विषमताओं से भरे वट वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त कर उन्होने कलम पकड़कर चेतना संपन्न होने का परिचय दिया ।
सत्यम-शिवम-सुन्दरम को मूल मंत्र मानने वाले श्री सांई ने ठान लिया कि रोना नहीं लड़ना हैं। कलम से लड़ना हैं और अकेले लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती हैं, इसलिए असंख्य पाठको को तैयार कर लड़ाई प्रारंभ की गई। जो वर्तमान में व्यंग्य विधा के रूप में देखने मिल रही हैं ।
22 अगस्त 1924 को जमानी होशंगाबाद मध्य प्रदेश में जन्मे, नागपूर विश्व विद्यालय से एम0ए0 हिन्दी पास कर श्री परसाई ने कई नौकरियाॅं छोड़ी। मास्साब होने का सुख उठाया , 1957 से स्वतंत्र लेखन, नौकरी छोड़कर प्रारंभ किया और वसुधा
नामक साहित्यकि पत्रिका को घाटे की अर्थव्यवस्था में सरकार चलाने के समान चलाया और अनेक व्यंग्य रचना कर व्यंग्य को साहित्य विधा का रूप कहानी, उपन्यास, निबंध, स्तम्भ लेखन कर दिया।
उनके द्वारा नयी दुनिया समाचार पत्र में सुनो भाई साधो, नयी कहानियों में पाॅचवा कालम, और उलझी-सुलझीं, कल्पना मंै, और अन्तमें, शीर्षक से स्तम्भ लेखन कर व्यंग्य को रातोरात साहित्यिक् दर्जा दिलवाया। पाठ्य पुस्तकों में उनके निबन्ध शामिल किये गये। विकलांग श्रद्धा का दौर के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया इसके अलावा केंद्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार शिखर सम्मान जैसे कई सम्मान उन्हें उनके दिन फिरे कहानी संग्रह और रानी नागमति की कहानी के लिये दिया गया ।
श्री हरिशंकर परसाई जी जनता के लेखक के रूप में जनता के बीच लोेकप्रिय हुए। उनके द्वारा लगातार खोखली होती जा रही राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय परिवार की व्यथा, वेदना, कष्ट को बहुत सच्चाई के साथ प्रकट किया गया और सामाजिक पाखण्ड जीवन मूल्यों की धज्जियाॅं उडाती परम्पराओं को विवेक और सकारात्मक रूप से प्रकट किया। उनकी व्यंग्य रचनाएॅं गुदगुदी पैदा न करके मनुष्य को कुछ करने, सोचने, समझने बाध्य करती हैं ।
श्री प्रेमचंद के बाद श्री हरिशंकर परसाई ने सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक विषयों पर सतत् तीखा, सरल लेखन कर समाज में यथार्थ और तमीज पैदा की थी।
ईमानदारी समाज में बेवाकूफी का पर्याय बन गई हैं। उन्होने ही ईमानदारी की सटीक परिभाषा दी कि जिसे बेईमानी का अवसर प्राप्त नहीं हैं वहीं समाज में ईमानदार हैं।
बेईमानी के पैसे में ही पोष्टिक तत्व हैं । रोटी खाने से कोई मोटा नहीं होता, चन्दा या घूस खाने से मोटा होता हैं। कहने की दम और समझ रखने वाले परसाई ने अमानवीयता की तार तार खेलकर समाज के समक्ष रख दी । यही कारण हैं कि उनकी साफगोइर्, निडरता, से लिखी बातें मन पर असर, याद, गूज,प्रहार, समझा पैदा करती हैं ।
व्यंग्य को श्री परसाई ने हल्के फुल्के मनोरंजन की परम्परागत परिधि से अलग हटाकर साहित्यिक विद्या का दर्जा दिलवाया था। ऐसा नहीं हैं कि इसके पहले व्यंगकार नहीं हुए या व्यंग्य रचनाएॅ नहीं लिखी गई। भारतेन्दू हरिशचंद्र, जी.पी. श्रीवास्तव आदि साहित्यकारो ने व्यंग्य रचनाएॅं लिखी थी परन्तु कोई साहित्यकार विशुद्ध रूप से व्यंग्यकार नहीं था वह व्यंग्यकार कहलाना भी नहीं चाहता था और अकेले व्यंग्य लिखकर साहित्य में अपना स्थान भी सुरक्षित नहीं पाते थे । इस चक्रव्यूह को श्री हरि ने तोडा था और व्यंग्य को एक अलग दर्जा दिलाया था । उसे शूद्र से क्षत्रीय बनाया था। व्यंग्य को ब्राहम्ण इसलिये नहीं कह सकते हैं क्योंकि वह कीर्तन करता हैं और व्यंग्यकार को कीर्तन करना आता नहीं हैं।
लेखक के व्यक्तित्व निर्माण और मानसिकता पर उसके जीवन संघर्ष का गहरा असर पड़ा । यह बात श्री परसाई के लेखन से स्पष्ट झलकती हैं। अभाव, त्याग, गर्दिश, संघर्ष ही ऐसा औघड़, कबीर व्यक्तित्व पैदा कर सकती हैं।उनके व्यंग्य की यह विशेषता हैं कि उन्होने व्यक्ति के निजी अनुभव को एक पूरे समाज का अनुभव का हिस्सा बना दिया, उनकी बात एक व्यक्ति के दुख, तखलीफ से जुडकर मात्र आत्मालाप न रहकर उसकी निजता से छुटकारा दिला उसे सामाजिक बना देती हैं।
वे जीवन के अंतिम क्षण तक, बिस्तर पर पडे़ होने के बाद भी लिखते रहे और उनकी लेखन की गर्दिश अन्त तक खत्म नहीं हुई थी। सब कुछ मिल जाने के बाद भी व्यंग्य लेखन के लिये तड़पते पाये गये थे ।
श्री हरि ने बचपन में 1936 के आसपास प्लेग जैसा भयानक राक्षस देखा था। जिसने माॅ को डस लिया और पिता को तोड के रख दिया उसके 5-6 साल बाद उनके पिता भी पाॅच भाई बहिनो में से एक बहिन की शादी कर गुजर गये। मेट्र्कि पास कर जंगल विभाग की नौकरी की मस्त जिन्दगी गुजारी उसके बाद स्कूल मास्टरी टीचर्स ट्र्ेनिंग काॅलेज में नौकरी की और फिर सब कुछ छोड़कर सतत् लेखन प्रारंभ किया ।
श्री शंकर का मानना था कि समाज में व्याप्त विसंगतियोंको व्यक्ति और समाज के अर्थ में खोजकर उसकी जड़ में जाकर अर्थ देना और उसे विरोधाभाष से अलग करना एक गंभीर लेखन कर्म हैं। समाज को विसंगती की व्यापकता बतलाना उसकी जीवन में क्या अहमियत हैं यह दिखलाना टेढी खीर है। जिसे श्री परसाई ने बाखूबी से व्यक्त कर व्यंग्य शिल्पी के रूप में ख्याती पाई थी
। श्री परसाई का कहना था कि वे मनुष्य को नीचा दिखाने के लिए नहीं लिखते हैं। उनका उद्देश्य मनुष्य को और बेहतर मनुष्य बनाना रहा हैं। उनका संदेशरहा हैं कि ‘‘ मनुष्य तू अधिक सच्चा, न्यायी, मानवीय बन‘‘ वह मानव जीवन के प्रति आशावान थे। इसलिये उसकी कमजोरियों पर रोते थे।
साहित्यकार समाज की बुराईयों को बतलाने वाला डाॅक्टर हैं। डाॅक्टर केवल बीमारी ही नहीं बताता बल्कि इलाज भी बताता हैं। ऐसे में व्यंग्कार को निर्मम, कठोर, बुरा देखने वाला, छिन्द्रावेशी, छापामार, कहना गलत हैं। कैंसर के रोगी को कैंसर ही बताया जायेगा ताकि उसका इलाज शीघ्र उसी रूप में सम्भव हो सके ।
श्री परसाई ने अपने पार्टनर ब्रम्हराक्षस, मित्र, गजानंद माधव मुक्ति बोध के मार्ग पर चलते हुए लेखन कार्य किया कि इसलिए कि जो हैं, उससे बेहतर चाहिए पूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए ‘‘ इसी कविता से आप लेखकों के मन की व्यथा जान सकते हैं और समझ सकते हैं कि व्यंग्य विधा कोई विनोद, हास्य, माखौल नहीं हैं बल्कि एक गंभीर लेखन, करूणा की अंतर्धारा, मन को सोचने के लिये, कर्म को करने के लिए बाध्य करने वाली जीवन की समीक्षा हैं ।
उनकी नजर में व्यंग्य व्यापक सामाजिक, आर्थिक,राजनीतिक परिवेश की विसंगति मिथ्याचार, असामंजस्य, अन्याय आदि की तह में जाना, कारणो का विश्लेषण करना, उन्हें सही परिप्रेक्ष्य में देखना व्यंग्य हैं । उनके अनुसार व्यंग्य चेतना को झकझोर देता हैं, व्यक्ति को उसके सामने खडा कर देता हैं, आत्म-साक्षात्कार कराता हैं, सोचनेको बाध्य करता हैं, व्यवस्था की सड़ांघ को दर्शाता हैं, परिवर्तन की ओर प्रेरित करता हैं । यही कारण हैं कि जितना व्यापक परिवेश होगा जितनी गहरी विसंगति होगी, जितनी तिलमिला देने वाली अभिव्यक्ति होगी व्यंग्य उतना ही सार्थक होगा ।
उनका मानना था कि व्यंग्य मानव सहानुभूति से पैदा होता हैं। वह मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाना चाहता हैं। वह मनुष्य से कहता हैं कि तू अधिक सच्चा, न्यायी, मानवीय बन। यदि मनुष्य के प्रति व्यंग्यकार को आशा नहीं हैं, यदि वह जीवन के प्रति कनसन्र्ड नहीं हैं तो वह क्यों रोता हैं उसकी कमजोरियों पर। जो यह कहते हैं कि व्यंग्य लेखक निमर्म, कठोर और मनुष्य विरोधी होता हैं, उसे बुराई ही बुराई दिखती हैं, उनका कहना हैं कि डाॅक्टर के पास जो लोग जाते हैं उन्हें वह रोग बताता हैं। तो क्या डाॅक्टर कठोर हैं ? अमानवीय हैं ? अगर डाॅक्टर रोग का निदान न करें और अच्छा ही अच्छा कहें तो रोगी मर जायेगा । जीवन की कमजोरियों का निदान करना कठोर होना नहीं हैं। अच्छे व्यंग्य में करूणा की अंतर्धारा होती हैं।
हम व्यंग्य को चाहें तो तीव्रतम क्षमताशील व्यंजनात्मकता के रूप में देख सकते हैं। व्यंग्य सहृदय में हलचल पैदा करता है। अपने प्रभाव में व्यंग्य करूण या कटु कुछ भी हो सकता है, मगर वह बैचेनी जरूर पैदा करेगा।
व्यंग्य और हास्य को परिभाषित करते हुए उन्होने कहा कि यह तय करना भी कठिन हैं कि कहाॅ हास्य खत्म होता हैं और व्यंग्य शुरू होता हैं। उन्हंे व्यंग्य में हॅसी भी आ सकती हैं इससे वह हास्य नहीं हो जाता, मुख्य बात हैं, वर्णित वस्तु का उद्देश्य और सारोकार हैं।
पीडि़त, मजबूर, गरीब, शारीरिक विकृति का शिकार, नारी, नौकर आदि को हास्य का विषय बनाना कुरूचिपूर्ण और क्रूर है। लेखक को यह विवेक होना चाहिए कि किस पर हंसना और किस पर रोना। पीटनेवाले पर भी हंसना और पिटनेवाले पर भी हंसना विवेकहीन हास्य है। ऐसा लेखक संवेदना शून्य होता है।
श्री परसाई के अनुसार आदमी हॅसता क्यों हैं ? परम्परा से हर समाज की कुछ संगतियाॅं होती हैं, सामंजस्य होते हैं, अनुपात होते हैं। ये व्यक्ति और समाज दोनो के होते हैं। जब यह संगति गड़बड़ होती हैं तब चेतना में चमक पैदा होती हैं। इस चमक से हॅंसी भी आ सकती हैं और चेतना में हलचल भी पैदा हो सकती हैं।
व्यंग्य के साथ जो हंसी आती हैं। वह दूसरे प्रकार की होती हैं। उस हंसी में की गई गलतियाॅ, न समझने में आना वाला व्यवहार, व्यवस्था और विसंगतियों के भागीदार होने का दुख छुपा होता हैं जो भूतकाल में पैदा होने के कारण एक हंसी उत्पन्न करता हैं और आगे सोचने, समझने बाध्य करता हैं।
उनके बडे भाई श्री नर्मदाप्रसाद खरे के अनुसार श्री परसाई का व्यंग्य इतना सजग, तीव्र , तीखा, चेतन्य था जिसमें वर्तमान सामाजिक जीवन की सड़ाॅध , विरूपता, विसंगति के साथ ही जीवन के प्रति आस्था, व्यक्त होती थी, वे घोर यथार्थवादी लेखक विचारक थे। उन्होने व्यावहारिक जीवन में भीषण संघर्ष किया इसलिए उन्होनेजीवन के हर सन्दर्भ में जुझारू रचनाएॅ की के साथ जुड़े हुए हैं। वे राजनीति, समाज, संस्कृति, साहित्य और कला के यथार्थ वाहक हैं। यही कारण हैं कि उनके व्यक्तितत्व में कबीर का फक्कड़पन तथा उनके लेखन में निराला की जीवंतता समन्वित हैं।
प्रसिद्ध चित्रकार श्री जोगेन चैधरी ने सही कहा हैं कि हरिशंकर परसाई हिन्दी के पहले रचनाकार हैं, जिन्होने व्यंगय को विधा का दरजा दिलाया और उसे हल्के-फुल्के मनोरंजन की परम्परागत परिधि से उबारकर समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा हैं। उनकी व्यंग्य रचनाएॅं हमारे मन में गुदगुदी पैदा नहीं करती, बल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमने-सामने खड़ा करती हैं, जिनसे किसी भी व्यक्ति का अलग रह पाना लगभग असम्भव हैं। लगातार खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में पिसने मध्यवर्गीय मन की सच्चाईयों को उन्होने बहुत ही निकटता से पकडा हैं। सामाजिक पाखण्ड और रूढि़वादी जीवन-मूल्यों की खिल्ली उड़ाते हुए उन्होने सदैव विवेक और विज्ञान-सम्मत दृष्टि को सकारात्मक रूप से प्रस्तुत किया हैं। उनकी भाषा-शैली में खास किस्म का अपनापा हैं, जिससे पाठक ये महसूस करता हैं कि लेखक उसके सिर पर नहीं, सामने ही बैठा हैं।
यही कारण हैं कि वे एक लोक विश्वास के रूप में उभरे और व्यंग्य को लोकप्रियता के चरम शिखर पर पहुंचाया।श्री परसाई के व्यंग्य में जीवन की तीखी आलोचना हैं। चेतना को झकझोर देने वाला सत्य हैं और मन को तिलमिला देनेवाली व्यंजना हैं जिस पढकर वे सब दृष्य, चेहरे और हालात, जो बहुत पास होकर भी अनदेखे रह जाते हैं, उसके सामने पाठक के सामने प्रकट हो जाते हैं।
यह श्री हरिशंकर परसाई के संबंध में उनके एकलव्य का एक बहुत छोटा रूप रेखा चित्र हैं । हरिकथा बहुत हैं उसका अन्त नहीं हैं इसलिए हरिकथा - हरि अनन्ता के गुरूमंत्र के साथ उनके जीवन लेखन पर एक रेखाचित्र वर्णित किया गया हैं।
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