Sunday, July 7, 2013

छपास की बीमारी

                                      छपास की बीमारी

                                             छपास की बीमारी नेताओं में सर्वाधिक पायी जाती है। वे हर समय खबरों मेंछाये रहना चाहते हैं, इसलिए उनकी लेटंीन, बाथरूम, जूते, नाउ, दर्जी, बढई कीदुकान का उद्घाटन करती खबरें छपती रहती हैं। बडे नेताओं की बातें तो जनताके स्वास्थ्य के लिए ‘च्यवनप्राश‘ का काम करती है इसलिए उनकी सभी बाते ‘गीतवचन‘ की तरह छपती है। यदि खबर थोडी गलत निकली, दंगे, भडके,आला-मीनारे तोडी गई तो तोड-मरोडकर पेश करने का 1⁄4 फिल्मी सेंसर की कैचीवाला फार्मूला 1⁄2 स्पष्टीकरण जारी कर दिया जाता है।


                                                      छोटे नेता भी बडे नेताओं की आड लेकर अपना नाम छपवा ही लेते हैं। पेशमें प्याऊ, सडक, पुल, स्कूल का उद्घाटन गांव, शहर, कस्बें में छोटा नेता करता है,लेकिन नाम हाई कमान से लेकर उसके स्तर से सभी बडे नेताओं का छपताहै। यदि छोटा नेता ऐसा न करें तो उसे आलाकमान से डांट पडती है और जबउसके साथ बडे नेताओं का नाम जुडता है तो उसके छपने की भी एक सौ एकप्रतिशत गारंटी हो जाती है।


                                                                         छोटे नेताओं के इस कार्य से बडे नेता भी खुश हो जाते हैं। खबर पढकरआशीवार्द देते हैं। ऊपर वाले सोचते हैं कि चेला उनका कितना ध्यान रखता हैंछोटी-छोटी बातों में भी गुरू घंटालों को नहीं भूलता है। टिकिट वितरण के समयइस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है। इससे पार्टी की एकता भी प्रदर्शित होतीहै और अंदर ही अंदर पार्टी को तीन-पांच करने वालों की बात दब जाती है। ऊपरसे भले ही इन नेताओं में छत्तीस का आकडा हो लेकिन खबर ऐसी छपती है किमाना सब ‘राम के भाई‘ हैं।

                                                                 आपने देखा होगा कि कोई पार्टी किसी कार्यकर्ता को छोटा सा पद देती हैतो समाचार पत्रों में बडे-बडे अक्षरों में कई नेताओं के साथ उसका फोटो छपताहै। पूरा का पूरा पेपर नेताओं के फोटो और नाम से भर जाता है। भले ही लोग नपढे न देखे या समोसा लपेटकर फेंक दें, लेकिन वे समाचार पत्र में छपवाना नहींछोड सकते हैं।

                                                          अधिकारियों में भी यह छपास की बीमारी आमतौर पर पायी जाती है।समाचार पत्रों में बिना बडे अधिकारी के कुशल नेतृत्व के, छोटे अधिकारी की खबरछप नहीं सकती है। यदि छप गई तो ‘प्रोफेशनल मिस कन्डक्ट‘ माना जाताहै। एक तो ताना सुनने को मिलता है कि खूब अकेले-अकेले छप रहे हो। दूसराबॉस नाराज हो जाता है। तीसरा गोपनीय चरित्रावली ‘गोपनीय‘ न होकर‘जगजाहिर‘ हो जाती हैं इसलिये भले ही अकेला एक अधिकारी दिन-रात, दौड धूपकरके अपलनी बुद्धी, विवेक, साहस, निडरतासे कोई कार्य सफलता पूर्वक संपन्नकरें। लेकिन उसके पीछे कुशल नेतृत्व, मार्गदर्शन बडे अधिकारी का अवश्य पढनेमिल जाता है।


                                                                          जिले में एक दिन में कई वारदातें होती हैं। मुख्यालय से सैकडों मील दूरप्रधान अधिकारी बैठा रहता है, उसे खबर भी नहीं रहती है कि लडकी चोरी हो गई,बैंक लूट लिया गया और वारदाती पकडे गये, लेकिन दूसरे दिन खबर छपती है किमुख्य अधिकारी, सहायक अधिकारी के कुशल नेतृत्व, कडी मेहनत के बाद चोरपकडे गये, लूटेरे काबू में आये, हत्या की गुत्थी सुलझी, बलात्कारी सीखचों में। भलेही नेतृत्वकर्ता अपने घरों में दाम्पत्य जीवन का निर्वाह कर रहे हों, लेकिन यहां परभी वही ‘अधीनस्थ‘ वाला नियम लागू होता है।

                                                          यह नियम अनुशासन प्रिय संस्थाओं में कडे अनुशासन के साथ लागू भीकिया जाता है। अगर प्रेस में भूल से अकेले किसी अधिकारी का नाम छप जाये तोलाइन अटैच और कोर्ट मार्शल और पता नहीं क्या-क्या सजाऐं हो सकती हैं। सुबहमिलने के लिए साहब बुलाये और शाम को मिले। वे भी केवल आंखे दिखाकर,डांटकर, चेतावनी देकर भगा दें।चाकरी करने वालों के जीवन में ऐसा कई बार होता है। वे बेचारे काम करतेहैं और नाम बडे अधिकारी या उसकी चमचागिरी करने वाले चमचों का छप जाताहै। ऐसेचमचों का नाम साहब के साथ अक्सर छपता रहता है और वे बेचारे
जिन्होंने मेहनत की, प्रोग्राम बनाया, पोस्टर छपाये, बैनर लगाये, व्यवस्था की, वे नींवके पत्थर की तरह उपेक्षित रह जाते हैं। उनका नाम ताजमहल बनाने वाले कारीगरऔर मजदूरों की तरह छप नहीं पाता है और लोग केवल इतना जान पाते हैं किशाहजहां ने ताजमहल बनाया था।

                                                        साहित्यकारों में छपने की बीमारी के जीवाणु जन्मजात पाये जाते हैं, और वेकोई भी अवसर छपने का खोना नहीं चाहते है बडे साहित्यकार तो इतना कमसार्वजनिक रूप से लिखते हैं कि उनके नाम से ही रचनाएं छप जाती हैं, लेकिनछुट भाइयों को बहुत दिक्कत है और उन्हें ‘छपास की बीमारी‘ उपेक्षा के कारणलग जाती है। वे कई संपादकों, संवाददाताओं के चक्कर काटते हैं, उन्हेंचाय-नाश्ता कराते हैं, उनको यहां वहां की खबरे देते हैं, तब कहीं वे छप पाते हैं।छपना साहित्यकार का मौलिक अधिकार है और उसे छपना भी चाहिए।

                                           लेकिन इसके लिए चुनाव जीतने वाली या महल ढहाने वाली चालें चलने औरशकुनी का पांसा फंेकने की जरूरत नहीं है। लेखनी में दम है तो उसकी नियतिछपना-छपना ही है। भले ही वह आपके जीते जी न छपे । आपके मरने के बादछपें, लेकिन उसे छपना हैं उसे कोई नहीं रोक सकता है। यह अवश्यक है कि कईहकदार व्यक्ति जीते जी छप नहीं पाये और मरने के बाद उन्हें छापकर शहीदों कीतरह याद किया जाता है, उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है कि अब तुम छप गये, अबतुम भूत बनकर छपने के लिए नहीं सताना।

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