Monday, June 24, 2013

‘सृष्टि की जननी , दया, ममता, त्याग , वीरता की मूर्ति , पवित्रता की द्योतक ‘नारी‘ umeshgupta

                                               गोस्वामी तुलसीदास का नाम भारत में बडी श्रद्धा से लिया जाता है।उनके द्वारा लिखित रामायण, महाकाव्य की गणना विश्व के बडे और प्राचीनमहाकाव्यों में होती है।

                                             हमारे देश में घर-घर रामायण को बडे चाव और श्रद्धा केसाथ पढा जाता है। यही कारण है कि जब भी नारी के संबंध में कोई बात चलतीहै तो उसे वह नीचा दिखाने के लिए लोग सीना ठोंककर तुलसीदास का उलाहनादेकर कहते हैं कि ‘ढोर, गंवार, शूद्र, पशु, नारी ये सब ताडन के अधिकारी।‘

                                                        कहने को तो हम लोगों ने कह दिया, लेकिन हम यह बात नहीं समझते हैंकि हम लोग किस द्वापर और त्रेता युग की बात कर रहे है। जब मनुष्य के पासपहनने को वस्त्र नहीं थे, वह वृक्ष की छाल लपेटता था, घास-फूस के झोपडे मेंजीवन यापन करता था। 

                                       आज जबकि हम इक्कीसवीं सदी के द्वार पर खडे है तथानारी, स्कूल, कॉलेजों, दफ्तरों से एवरेस्ट पर पहुंच गई हैं, तब हमको यह बात
अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि तुलसीदास ने यह बात उस नारी के लिए
कहीं थी जो घर की सात दीवारों के बीच कैद घुट-घुटकर जीवन जीती थी। वह
अशिक्षित थी, तभी तो उसे तुलसीदास ने गंवार कहा था।


                                    आज परिस्थितियां बदल गई हैं, नारी बहुत शिक्षित हो गई है। तुलसीदासके समय नारी समाज के सबसे निम्नतम वर्ग ‘शूद्र‘ के समान उपेक्षित थी, उसकी नतो कोई बात सुनी जाती थी, न ही मानी जाती थी, उसका काम सिर्फ बच्चे पैदाकरना और परिवार का लालन-पालन करना था। आज की तरह जीवन के हर क्षेत्रमें उपयोगी नारी उस समय नहीं थी, तभी तो तुलसीदास ने उसे शूद्र के समानमान लिया।

 इसी तरह तुलसीदास के समय की नारी मां-बाप पर आश्रित थी,
उनकी मर्जी के बिना वह कुछ नहीं कह सकती थी, उनकी इच्छा ही उसकी इच्छाथी। वह उस जानवर के समान थी, जिसका मालिक उसे किसी भी खूंटे से बांधसकता था। उसका विवाह बिना उसकी मर्जी से किसी से भी कर दिया जाता थांचाहे उसका पति बूढा हो, बहु विवाही हो, चोर, उचक्का , शराबी कोई भी हो। घरवालों की मर्जी उसकी मर्जी होती थी परन्तु आज नारी को कानून से अधिकार प्राप्तहैं, वह पुरूषों के बराबर हक रखती है, उसकी इच्छा का सम्मान किया जाता है,उसे पशु की श्रेणी में रखना अपना मजाक उडाना होगा।


तुलसीदास के समय की नारी धन-उर्पाजन करने में असफल थी, घर कीआय में आर्थिक रूप से उसका कोई योगदान नहीं था, चूल्हा, चौकी के सिवा वहकुछ जानती भी नहीं थी, इसलिए तुलसीदास ने उसे ढोर के समकक्ष रखा था।
आज जबकि नारी अपने पैरांे पर खडी है, कारखानों, दफ्तरों, हवाई जहाज, रेलआदि में नारियां काम कर रही हैं, स्कूल , कालेजों में सफलतापूर्वक पढा रही है।
                               वह अब बहुत होशियार , कार्यशील , पुरूषों के समान सामर्थ्य वाली हो गई है।आज कितनी नारियों को अपने पिता के रिटायरमेंट के बाद घर को चलाना पडरहा है, कितनी विवाहित औरतें अपने घर को मजबूत आर्थिक आधार प्रदान कर रहीहैं।


                                               इन सब बातों से स्पष्ट है कि तुलसीदास के समय की नारी के समान आजकी नारी नहीं है। आज नारी अशिक्षित नहीं है, फिर उसे गंवार क्यों कहा जाये नही वह समाज में उपेक्षित है, जो उसे शूद्र कहा जाये। नारी बहुत कुछ कर रही है।उसे पशु के समतुल्य समझना बेईमानी है। अब नारी अकर्मण्य भी नहीं है। वहपरिवार के लालन-पालन के साथ बहुत कुछ करना जानती है, फिर उसे ढोरसमझने की गलती क्यों की जाये। ये सब बातें हमें पूर्वाग्रह से ग्रसित , शिक्षित ,वैज्ञानिक युग के रॉकेट में यात्रा करने वाले, आधुनिकतम मनुष्य की समझ में नहींआ रही है। नारी को ढोर, गंवार, शूद्र, पशु के साथ न रखकर शिथिल होशियार ,कार्यशील सम्मानीय लोगांे की श्रेणी में रखा जाये। वैसे एक बात लोगों की समझ मेंनहीं आ रही है कि सीख से ही 1⁄4 उनकी पत्नी रत्नावली 1⁄2 इतने बडे विद्वानकहलाने वाले ने ये बात किस आधार पर कही, शायद वे भी पुरूष प्रधान समाज मेंपूर्वग्रह से ग्रसित रहे होंगे।

                                        मेरे कहने का मतलब यही है कि हम कल की तुलसीदास के युग कीरोती-धोती पुरातनी नारी की तस्वीर को भूल जायें और आज की होशियार ,
शिक्षित , सामर्थ्यवान, सम्मानीय कार्यशील नारी की तस्वीर को याद रखें , तभी हम‘सृष्टि की जननी , दया, ममता, त्याग , वीरता की मूर्ति , पवित्रता की द्योतक‘नारी‘ के साथ न्याय कर सकेंगे।

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