आंख के अंधे और नाम नयन सुख [surdas]
हमारे देश में ज्यादा से ज्यादा लोग सार्वजनिक स्थानों अस्पतालों, सरकारी
दफ्तरों आदि जगहों पर दीवालों पर जो सदाचार की बातें लिखी होती है, उन्हें
पढते तो हैं लेकिन उनका पालन नहीं करते हैं। ऐसे करोडों नयन सुख हमारे देश
में मौजूद हैं जो आंख होते हुए भी बिना आंख वाला काम करते हैं।
पेशाब करना मना है, कृप्या लाइन से आये, धूम्रपान निषेध है, कूडा-करकट
कूडादान में डालें, पानी व्यर्थ न बहाये आदि हिदायतें लिखी होती हैं, जिन्हें हम
चुनावी नारे समझकर भूल जाते हैं और उससे न सिर्फ दूसरों को बल्कि अपने को
भी हानि पहुंचाते हैं। बस, टेंन, अस्पताल आदि सभी सार्वजनिक स्थलों में आपने
सिगरेट पीना मना है...........पढा होगा। लेकिन इसके बाद भी हम सार्वजनिक स्थानों
पर धुंआ छोडते हैं।
धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए बहुत घातक है, इससे हर साल लाखों लोग मरते
हैं, अनेक बीमारियां उत्पन्न होती है, हृदय गति का अचानक बंद हो जाना और
फेफडों का कैंसर आम बात है। फिर भी हम सार्वजनिक स्थानों पर बीडी, सिगरेट,
सिगार, चिलम, हुक्का पीने से बाज नहीं आते हैं।
हम लोगों में से अधिकंाश लोग यह जानते हैं कि धूम्रपान का अप्रत्यक्ष प्रीााव
कम प्राण घातक नहीं है। जो लोग सिगरेअ का शौक नहीं रखते हैं वे लोग भी
इसके धुंए से आंख, नाक में जलन, प्रदाह, गले मंे खरास, आदि बीमारियों के
शिकार हो सकते हैं और फेफडों का कैंसर तक होने की संभावना रहती है। बच्चों
पर सबसे ज्यादा इसका प्रभाव पडता है, और इन्हें श्वास संबंधी बीमारी ब्रोंकाटिस,
निमानिया होने का डर बना रहता है।
सार्वजनिक स्थानों पर इतने बडे माहौल में मुंह से छोडे गये धुंए का स्त्रियों
पर भी बुरा प्रभाव पडता है और उनमें हृदय रोग की संभावना बढती है, गर्भावस्था
में स्त्रियों पर जहरीला धुंआ, गंभीर असर छोडता है। इसके बाद भी हममें से कई
लोग सार्वजनिक स्थानों पर जहर के गोले छोडकर खुद की मौत तो बुलाते हैं,
साथ ही साथ अन्य लोगों की भी मौत को अकारण बुलावा देते हैं।
हम अंधे हैं। हमें बस, रेल में धूम्रपान निषेध नहीं दिखता है। घरों, रेस्टोरेंटों,
क्लबों, होटलों में बैठकर हम खुलेआम हाइडंोजन बम छोडते रहते हैं, और दीवारों
की तरफ नहीं देखते हैं, जहां हमारे जैसे अंधों के लिए ही चश्मा लगाया गया होता
है।
हमारे घर में मेहमान आते हैं और मान न मान मैं तेरा यमराज की तरह
सिगरेट सुलगाकर बैठ जाते हैं वहां पर शिष्टाचार आडे आ जाता हैं। उन्हें मना
कैसे करें ? ऐसे लोगों के ऐश के लिए ऐशटें कभी न दें यदि खुद शौकीन नहीं है
तो एशटंे ही घर में न रखे। शायद उन पर असर पड सकता है। वैसे तो खुले
स्थानों पर गुल छोडने से बाज नहीं आते हैं, उन्हें बंद कमरे में रोकना बहुत
मुश्किल है।
जगह-जगह लिखा रहता है ‘पैशाब करना मना है‘ लेकिन तब भी हम छोटे
बच्चों की तरह सडक किनारे पेशाब करना शुरू कर देते है। धार्मिक स्थलों का
भी ध्यान हमें नहीं रहता हैं हम सूरदासों को सार्वजनिक महत्व के स्थल ,
अस्पताल, न्यायालय आदि कुछ भी नहीं दिखाई देते हैं और जानबूझकर कन्याशाला,
गर्ल्स कालेज , बच्चों की पाठशाला , किडर गार्डन आदि के आसपास चैन खोलकर
खडे हो जाते हैं। जबकि दीवारों पर बडे-बडे अक्षरों में सिनेमा बोर्ड की तरह
‘पेशाब करना मना है,‘ लिखा रहता है।
इन अंधों को आंख दिखाने के लिए जगह-जगह आपने देखा होगा कि
टाइल्स दीवारों पर लगा दी जाती है, जिसमें राम, रहीम, रोडिंक्स के देवताओं की
फोटो धार्मिक एकता दर्शाकर लगायी जाती हैं, ताकि किसी धर्मावालम्बी के लिए
कोई मौका दंगा फैलाने का न रह जाये।
जगह-जगह दवारों पर ‘‘ कचरा फेंकना मना है, थूकना मना है,‘‘ लिखा
रहता है। लेकिन तब भी जगह-जगह पान की पीकों से रंगी दीवारें, और फर्श
दिखते हैं, जो देश मंे अनेक स्थानों पर फैली आतंकवादी हिंसा की याद ताजा
कराते है।
हम इतने ज्यादा अंधे हैं कि गली-मोहल्ले , अस्पतालोें, दफ्तरों में रखे कचरे
का डंम भी हमें दिखाई नहीं देता है और जहां देखों वहां नेताओं के आश्वासनों की
तरह कचरा बिखरते रहते हैं जो हम सबके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।
कतार में लगना सिर्फ अंग्रेजों का काम था। हम लोग क्यू में क्यू लगे !
कोई बता सकता है! लाइन में लगकर टिकिट लेना, बस में चढना आदि बातें हमें
अच्छी नहीं लगती है और दीवारों पर लिखी बातें लाइन से आये को हम ठेंगा
दिखाते हैं और भीड में बेकतार होकर भगदड के शिकार बनते हैं।
इस प्रकार के न जाने हम लोग कितने काम करते हैं जो बिना आंख वाले
भी नहीं करते हैं इसलिए यदि हम अपने आप को आंख के अंधे और नाम नयन
सुख कहें तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। ऐसे लोगों के लिए ही महात्मा गांधी ने
कहा है कि ‘‘ अंधा वह नहीं जो देख नहीं सकता, अंधा वह है जो देखकर भी
सुधरना नहीं चाहता है।‘‘
हमारे देश में ज्यादा से ज्यादा लोग सार्वजनिक स्थानों अस्पतालों, सरकारी
दफ्तरों आदि जगहों पर दीवालों पर जो सदाचार की बातें लिखी होती है, उन्हें
पढते तो हैं लेकिन उनका पालन नहीं करते हैं। ऐसे करोडों नयन सुख हमारे देश
में मौजूद हैं जो आंख होते हुए भी बिना आंख वाला काम करते हैं।
पेशाब करना मना है, कृप्या लाइन से आये, धूम्रपान निषेध है, कूडा-करकट
कूडादान में डालें, पानी व्यर्थ न बहाये आदि हिदायतें लिखी होती हैं, जिन्हें हम
चुनावी नारे समझकर भूल जाते हैं और उससे न सिर्फ दूसरों को बल्कि अपने को
भी हानि पहुंचाते हैं। बस, टेंन, अस्पताल आदि सभी सार्वजनिक स्थलों में आपने
सिगरेट पीना मना है...........पढा होगा। लेकिन इसके बाद भी हम सार्वजनिक स्थानों
पर धुंआ छोडते हैं।
धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए बहुत घातक है, इससे हर साल लाखों लोग मरते
हैं, अनेक बीमारियां उत्पन्न होती है, हृदय गति का अचानक बंद हो जाना और
फेफडों का कैंसर आम बात है। फिर भी हम सार्वजनिक स्थानों पर बीडी, सिगरेट,
सिगार, चिलम, हुक्का पीने से बाज नहीं आते हैं।
हम लोगों में से अधिकंाश लोग यह जानते हैं कि धूम्रपान का अप्रत्यक्ष प्रीााव
कम प्राण घातक नहीं है। जो लोग सिगरेअ का शौक नहीं रखते हैं वे लोग भी
इसके धुंए से आंख, नाक में जलन, प्रदाह, गले मंे खरास, आदि बीमारियों के
शिकार हो सकते हैं और फेफडों का कैंसर तक होने की संभावना रहती है। बच्चों
पर सबसे ज्यादा इसका प्रभाव पडता है, और इन्हें श्वास संबंधी बीमारी ब्रोंकाटिस,
निमानिया होने का डर बना रहता है।
सार्वजनिक स्थानों पर इतने बडे माहौल में मुंह से छोडे गये धुंए का स्त्रियों
पर भी बुरा प्रभाव पडता है और उनमें हृदय रोग की संभावना बढती है, गर्भावस्था
में स्त्रियों पर जहरीला धुंआ, गंभीर असर छोडता है। इसके बाद भी हममें से कई
लोग सार्वजनिक स्थानों पर जहर के गोले छोडकर खुद की मौत तो बुलाते हैं,
साथ ही साथ अन्य लोगों की भी मौत को अकारण बुलावा देते हैं।
हम अंधे हैं। हमें बस, रेल में धूम्रपान निषेध नहीं दिखता है। घरों, रेस्टोरेंटों,
क्लबों, होटलों में बैठकर हम खुलेआम हाइडंोजन बम छोडते रहते हैं, और दीवारों
की तरफ नहीं देखते हैं, जहां हमारे जैसे अंधों के लिए ही चश्मा लगाया गया होता
है।
हमारे घर में मेहमान आते हैं और मान न मान मैं तेरा यमराज की तरह
सिगरेट सुलगाकर बैठ जाते हैं वहां पर शिष्टाचार आडे आ जाता हैं। उन्हें मना
कैसे करें ? ऐसे लोगों के ऐश के लिए ऐशटें कभी न दें यदि खुद शौकीन नहीं है
तो एशटंे ही घर में न रखे। शायद उन पर असर पड सकता है। वैसे तो खुले
स्थानों पर गुल छोडने से बाज नहीं आते हैं, उन्हें बंद कमरे में रोकना बहुत
मुश्किल है।
जगह-जगह लिखा रहता है ‘पैशाब करना मना है‘ लेकिन तब भी हम छोटे
बच्चों की तरह सडक किनारे पेशाब करना शुरू कर देते है। धार्मिक स्थलों का
भी ध्यान हमें नहीं रहता हैं हम सूरदासों को सार्वजनिक महत्व के स्थल ,
अस्पताल, न्यायालय आदि कुछ भी नहीं दिखाई देते हैं और जानबूझकर कन्याशाला,
गर्ल्स कालेज , बच्चों की पाठशाला , किडर गार्डन आदि के आसपास चैन खोलकर
खडे हो जाते हैं। जबकि दीवारों पर बडे-बडे अक्षरों में सिनेमा बोर्ड की तरह
‘पेशाब करना मना है,‘ लिखा रहता है।
इन अंधों को आंख दिखाने के लिए जगह-जगह आपने देखा होगा कि
टाइल्स दीवारों पर लगा दी जाती है, जिसमें राम, रहीम, रोडिंक्स के देवताओं की
फोटो धार्मिक एकता दर्शाकर लगायी जाती हैं, ताकि किसी धर्मावालम्बी के लिए
कोई मौका दंगा फैलाने का न रह जाये।
जगह-जगह दवारों पर ‘‘ कचरा फेंकना मना है, थूकना मना है,‘‘ लिखा
रहता है। लेकिन तब भी जगह-जगह पान की पीकों से रंगी दीवारें, और फर्श
दिखते हैं, जो देश मंे अनेक स्थानों पर फैली आतंकवादी हिंसा की याद ताजा
कराते है।
हम इतने ज्यादा अंधे हैं कि गली-मोहल्ले , अस्पतालोें, दफ्तरों में रखे कचरे
का डंम भी हमें दिखाई नहीं देता है और जहां देखों वहां नेताओं के आश्वासनों की
तरह कचरा बिखरते रहते हैं जो हम सबके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।
कतार में लगना सिर्फ अंग्रेजों का काम था। हम लोग क्यू में क्यू लगे !
कोई बता सकता है! लाइन में लगकर टिकिट लेना, बस में चढना आदि बातें हमें
अच्छी नहीं लगती है और दीवारों पर लिखी बातें लाइन से आये को हम ठेंगा
दिखाते हैं और भीड में बेकतार होकर भगदड के शिकार बनते हैं।
इस प्रकार के न जाने हम लोग कितने काम करते हैं जो बिना आंख वाले
भी नहीं करते हैं इसलिए यदि हम अपने आप को आंख के अंधे और नाम नयन
सुख कहें तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। ऐसे लोगों के लिए ही महात्मा गांधी ने
कहा है कि ‘‘ अंधा वह नहीं जो देख नहीं सकता, अंधा वह है जो देखकर भी
सुधरना नहीं चाहता है।‘‘
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