हर मर्ज का इलाज......शिक्षा नही शिक्षक
हमारे देश में हर मर्ज का इलाज शिक्षा नहीं, शिक्षक हैं। इसलिए देश
में किसी भी काम में बंधुआ मजदूरों की तरह शिक्षकों को लगा दिया जाता है
आपने देखा होगा कि देश में जनगणना हो, परिवार नियोजन का
प्रचार-प्रसार कार्यक्रम हो, पोलियो उन्मूलन अभियान हो या साल दर साल पडने
वाले ग्राम पंचायत, नगरपालिका, नगर निगम, कृषि उपज मंडी, सहकारी समिति,
विधान सभा, लोकसभा के चुनाव हो सबसे पहले शिक्षकों को ही नियुक्त कर दिया
जाता है और बेचारे शिक्षकों को ही सबसे पहले काम की बागडोर सौंपी जाती हैं
शिक्षक आज शिक्षा के दाता न होकर कार्यक्रमों को समाप्त कराने वाले, उन्हें
सफलता से संपन्न कराने वाले जादूगर हो गये हैं।
देश की शिक्षा नीति में यह सब शामिल नहीं है। यह जरूर है कि शिक्षक
समाज का सबसे समझदार और उपेक्षित जीव हैं उसे ज्ञान-विज्ञान की जानकारी
है, सेवा भाव से विरक्ति है। लेकिन हम भूल जाते हैं कि जब बच्चों के कंधों पर
पचास कापी-किताबों का बोझ है, तब उन्हें पढाने वालों के कंधों पर कितना बोझ
रहता होगा। यही कारण है कि स्कूलों में शिक्षक पूरा पाठ्यक्रम करा नहीं पाते हैं
और बच्चे कोचिंग क्लासों में पढने जाते हैं।
तपती दोपहरी, बरसते पानी, कडकडाती ठंड में दरवाजे-दरवाजे दरवेशों की
तरह झिडकी खाते शिक्षकों को देखकर दया आती हैं। यदि किसी शिष्य ने शिक्षक
को पहचान लिया तो ठीक, नही ंतो दरवाजे पर ही खडे होकर झिडकियां
टालम-टोल, रूखे-सूखे शब्द उन बेचारों को सुनने मिल जाते है। भूखे-प्यासे दिन
गुजर जाता हैं। चाय की बात तो बहुत दूर है, कोई एक गिलास पानी पिला दें
ऐसा भी नहीं होता है।
भारतीय संस्कृति में गुरू को देव तुल्य माना गया है। गोविंद के साथ
उसकी तुलना की गई है। ज्ञान का प्रकाश बढाने वाला, अज्ञान का अंधकार दूर
करने वाले शिक्षक अब केवल कार्यक्रम संपन्न कराने वाले व्यक्ति रह गये हैं,
‘गुरूदेव‘, ‘गुरु‘ न होकर ‘गुरु घंटाल‘ बना दिये गये हैं।
शिक्षकों पर लदे काम के बोझ को देखते हुए उनकी तुलना हम किसी से
नहीं कर सकते हैं और पूजय होने के कारण कोई प्रचलित मुहावरा भी उनके लिए
प्रयोग में नहीं ला सकते हैं। ऐसा करके हम पाप के भागी नहीं बन सकते हैं। भले
ही कोई बन जाये, लेकिन हमारे लिए तो वह परमपूज्य शिक्षक ही रहते हैं।
शिक्षक खाली नहीं बैठे रहते हैं। उनके पास बहुत काम स्कूल कॉलेजों का
रहता है। ‘आगे नाथ न पीछे पगाह‘ वाली बात शिक्षकों के साथ लागू नहीं होती
है। लेकिन इसके बाद भी उन्हें काम पर क्यों लगा दिया जाता है यह बात समझ
में नहीं आती है। जबकि इससे स्कूल-कॉलेजों की पढाई प्रभावित होती है और
सीधा असर बच्चों पर पडता है।
हमारे देश में हर मर्ज का इलाज शिक्षा नहीं, शिक्षक हैं। इसलिए देश
में किसी भी काम में बंधुआ मजदूरों की तरह शिक्षकों को लगा दिया जाता है
आपने देखा होगा कि देश में जनगणना हो, परिवार नियोजन का
प्रचार-प्रसार कार्यक्रम हो, पोलियो उन्मूलन अभियान हो या साल दर साल पडने
वाले ग्राम पंचायत, नगरपालिका, नगर निगम, कृषि उपज मंडी, सहकारी समिति,
विधान सभा, लोकसभा के चुनाव हो सबसे पहले शिक्षकों को ही नियुक्त कर दिया
जाता है और बेचारे शिक्षकों को ही सबसे पहले काम की बागडोर सौंपी जाती हैं
शिक्षक आज शिक्षा के दाता न होकर कार्यक्रमों को समाप्त कराने वाले, उन्हें
सफलता से संपन्न कराने वाले जादूगर हो गये हैं।
देश की शिक्षा नीति में यह सब शामिल नहीं है। यह जरूर है कि शिक्षक
समाज का सबसे समझदार और उपेक्षित जीव हैं उसे ज्ञान-विज्ञान की जानकारी
है, सेवा भाव से विरक्ति है। लेकिन हम भूल जाते हैं कि जब बच्चों के कंधों पर
पचास कापी-किताबों का बोझ है, तब उन्हें पढाने वालों के कंधों पर कितना बोझ
रहता होगा। यही कारण है कि स्कूलों में शिक्षक पूरा पाठ्यक्रम करा नहीं पाते हैं
और बच्चे कोचिंग क्लासों में पढने जाते हैं।
तपती दोपहरी, बरसते पानी, कडकडाती ठंड में दरवाजे-दरवाजे दरवेशों की
तरह झिडकी खाते शिक्षकों को देखकर दया आती हैं। यदि किसी शिष्य ने शिक्षक
को पहचान लिया तो ठीक, नही ंतो दरवाजे पर ही खडे होकर झिडकियां
टालम-टोल, रूखे-सूखे शब्द उन बेचारों को सुनने मिल जाते है। भूखे-प्यासे दिन
गुजर जाता हैं। चाय की बात तो बहुत दूर है, कोई एक गिलास पानी पिला दें
ऐसा भी नहीं होता है।
भारतीय संस्कृति में गुरू को देव तुल्य माना गया है। गोविंद के साथ
उसकी तुलना की गई है। ज्ञान का प्रकाश बढाने वाला, अज्ञान का अंधकार दूर
करने वाले शिक्षक अब केवल कार्यक्रम संपन्न कराने वाले व्यक्ति रह गये हैं,
‘गुरूदेव‘, ‘गुरु‘ न होकर ‘गुरु घंटाल‘ बना दिये गये हैं।
शिक्षकों पर लदे काम के बोझ को देखते हुए उनकी तुलना हम किसी से
नहीं कर सकते हैं और पूजय होने के कारण कोई प्रचलित मुहावरा भी उनके लिए
प्रयोग में नहीं ला सकते हैं। ऐसा करके हम पाप के भागी नहीं बन सकते हैं। भले
ही कोई बन जाये, लेकिन हमारे लिए तो वह परमपूज्य शिक्षक ही रहते हैं।
शिक्षक खाली नहीं बैठे रहते हैं। उनके पास बहुत काम स्कूल कॉलेजों का
रहता है। ‘आगे नाथ न पीछे पगाह‘ वाली बात शिक्षकों के साथ लागू नहीं होती
है। लेकिन इसके बाद भी उन्हें काम पर क्यों लगा दिया जाता है यह बात समझ
में नहीं आती है। जबकि इससे स्कूल-कॉलेजों की पढाई प्रभावित होती है और
सीधा असर बच्चों पर पडता है।
No comments:
Post a Comment