अश्लीलता का शाब्दिक अर्थ है जो शालीन नहीं है। क्या शालीन नहीं है, जो भारतीयसंस्कृति , सभ्यता, विरासत के अनुरूप नहीं है संस्कृति सभ्यता, विरासत वह आधारभूत नियम,कानून कायदे , प्रथा, रूढि, बंधन हैं। जिन्हें आदर्श मानकर हम अपना जीवन जीते हैं और जबकोई बात इनके विपरीत टकराती है तो वह अश्लील हो जाती है।
भारत में अश्लीलता की परिभाषाअन्य परिभाषाओं की तरह समय व स्थान , व्यक्ति कोदेखकर बदलती रहती है। हमारे यहां हर चीज की तरह इसके भी कई मापदंड है। यदि फिल्मोंमें नायिका कम वस्त्र पहनेगी, तो वह अश्लील कहलायेगी। लेकिन यदि वही नायिका ब्रज मेंखडी होकर किसी मुकुट वाले का हाथ पकड ले तो वह शालीन कहलायेगी। उस पात्र के बारेमें कुछ भी बोलना महापाप कहलायेगा। आलिंगनबद्ध, अर्द्धनग्न पुरूष के हाथ में बांसुरी
लेकर यदि कोई कैलेण्डर, चित्र , फिल्म बनाई जाती है तो धार्मिक पात्र के अर्द्धनग्न होने केकारण वह अश्लील नहीं माना जाता है। जबकि दूसरे व्यक्ति के लिए वह कार्य अश्लील होजाता हैं अर्थात युग पुरूष जो काम करे वह शालीन है, नकलचोर आदमी करे तो वह अश्लीलहै। यह हमारी भारतीयता की अश्लीलता की कसौटी है।
विदेशों मंे ऐसा नहीं हैं। भारत में अश्लीलता में अश्लीलता नहीं है। हमारे यहां शरीर मेंअश्लीलता नहीं है, बल्कि मन में अश्लीलता है। हमारे भारतीय कानून में भी समाज, सभ्यता,
संस्कृति के अनुरूप ही अश्लीलता को परिभाषित किया गया है।
‘धारा 292 भारतीय दंड विधान के अनुसार किसी पुस्तक, पुस्तिका, कागज, लेख,
रेखाचित्र, रंगचित्र, रूपर्ण , आकृति या अन्य वस्तु अश्लील समझी जायेगी, जब वह-
कामोद्दीपक है
।कामुक व्यक्तियों के लिए रूचिकर है
।समग्र रूप से व्यक्तियों को दुराचारी बनाये।
भ्रष्ट बनाये अर्थात् कामुकला का बोध कराये।
लेकिन इसके अपवाद के अंतर्गत लोकहित में विज्ञान , कला, साहित्य, विधा के
उद्देश्य से प्रकाशित वस्तु अश्लील नहीं है। सद्भावपूर्वक धार्मिक प्रयोजनों के लिए रखा या
उपयोग की वस्तु अश्लील नहीं है।
प्राचीन स्मारक,पुरातत्वीय स्थल, मंदिर की मूर्तियां , मूर्तियों के प्रवहण में लाये जानेवाले पत्थर, रथ आदि अश्लील नहीं है ये कानूनी रूप से अश्लीलता में नहीं आते है। इसलिएमेरे मत से फैशन शो, मॉडलिंग भी अश्लीलता की कोटि में नहीं आना चाहिए।
हमारे यहां पर शारीरिक अश्लीलता न होकर मन में बसी अश्लीलता है। वास्तविकअश्लीलता ही है। मन में बसी अश्लीलता को हम फिल्मों , कैबरे, नाईट क्लबों में देखते हैं,खोजते रहते है। इसलिए हमें खजुराहों में बसी सूर्य-चंद्रमा की रोशनी में चमचमाती मूर्तियों सेकोई शिकायत नहीं हैं । भगवान के सहारे पर खडी खुले आम संभोगरस, कामुकता रसबरसाती मूर्तियों में हमें कोई अश्लीलता नजर नहीं आती है। यह हमारी अश्लीलता की कसौटी
पर खरी उतरती है।
जबकि आज नवविवाहित जोडे खजुराहों में पूजा-अर्चना करने नहीं जाते है, वे शादीके तुरंत बाद भगवान दर्शन की इच्छा भी नहीं रखते हैं। तब भी हम उन्हें हनीमून मनानेखजूराहांे जाने को प्रेरित करते है।छोटे बच्चों को घर छोडकर खजूराहों जाते है।क्यों ? इनप्रश्नों के उत्तर में हमारी सभ्यता निरूत्तर है।
लडके की शादी के बाद घर वाले कमरे में पहले दिन दूध रखते हैं, वह अश्लीलता
नहीं है ? उसे घर के सब लोग चंदा एकत्र कर हनीमून पर भेजते है, वह अश्लीलता नहीं है ?नवविवाहितों के एकत्र होते ही सब घर के सदस्य कमरा खाली कर देते हैं, उनको भरी दोपहरीमें बंद कमरे को ताका जाता है, छोटे-बडे सब मिलकर सुहागरात की सेज सजाते हैं। क्या यह
सब अश्लीलता नहीं है ?
फिर अश्लीलता क्या है ? हम घर में बंद कमरों में जो देखते हैं, उसे जब बाहर खुलेआम देखते हैं तो सहन नहीं कर पाते हैं और उसे अश्लील बोलने लग जाते है घर में हिम्मतनहीं पडती है। धर्म से डर लगता है। पाप, नर्क, अधर्म के डर से अश्लील नहीं बोल पाते हैं। यही कारण है कि आलिंगनबद्ध , प्रेमी-प्रेमिका को हम लैला -मजनू कहते हैं, नहीं। हनीमूनके जोडे को ढोला-मारू बोलते है, लेकिन बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते है।नदी, तालाबों में नहाते जलतरंग पैदा करते जीजा-साली का खेल, स्वीमिंग करते,जिमनास्टिक करते, सर्कस में करतब दिखाते , तंग कपडों से ढका व्यक्तियों का शरीर अबअश्लील नहीं है, तब स्टेज पर संुंदरता, शरीर , दिमाग का प्रदर्शन करती बालाऐं कैसे अश्लील
हो जाती है।
सौंदर्य प्रसाधन केंद्रों में जाकर लडकियों द्वारा बाल बनवाना और स्कूल-कॉलेजों मेंहिन्दी-अंग्रेजी की समय सारणी की तरह अपने कष्ट के दिनों को खुले आम बताना क्याअश्लीलता नहीं है। लेकिन जब ये बातें फिल्म , दूरदर्शन पर दिखाई जाती है तो घोर समाजविरोधी होकर अश्लील हो जाती है। जबकि साहित्य और सिनेमा दोनों समाज का दर्पण हैं। जोसमाज में पहले घटता हैं, उसका प्रतिरूप हम इनमें बहुत बाद में मंथन के बाद देखते हैं।
हमारे देश में मन की अश्लीलता को तन में , और तन की अश्लीलता को मन में देखाजाता है। यदि अश्लीलता को अश्लीलता में देंखे तो विरोधाभास उत्पन्न न हो और हर शालीनवस्तु अश्लील नहीं दिखेगी। जहां तक धर्म का प्रश्न है तो उसमें हमारी इतनी अटूट श्रद्धा ,विश्वास,प्रेम है कि वह हमें कामोत्तेजक नहीं कर पाता है। इसलिए उसमें अश्लीलता नहींहै।
यह बात भी मानने योग्य है। परन्तु अन्य कार्य भी आज अश्लील नहीं है, जिन्हें हम सभ्यता, संस्कृति धर्म, परम्परा की आड में अश्लील बता रहे है। इसलिए हम अपनी सोच में परिवर्तनलाएं।
भारत में अश्लीलता की परिभाषाअन्य परिभाषाओं की तरह समय व स्थान , व्यक्ति कोदेखकर बदलती रहती है। हमारे यहां हर चीज की तरह इसके भी कई मापदंड है। यदि फिल्मोंमें नायिका कम वस्त्र पहनेगी, तो वह अश्लील कहलायेगी। लेकिन यदि वही नायिका ब्रज मेंखडी होकर किसी मुकुट वाले का हाथ पकड ले तो वह शालीन कहलायेगी। उस पात्र के बारेमें कुछ भी बोलना महापाप कहलायेगा। आलिंगनबद्ध, अर्द्धनग्न पुरूष के हाथ में बांसुरी
लेकर यदि कोई कैलेण्डर, चित्र , फिल्म बनाई जाती है तो धार्मिक पात्र के अर्द्धनग्न होने केकारण वह अश्लील नहीं माना जाता है। जबकि दूसरे व्यक्ति के लिए वह कार्य अश्लील होजाता हैं अर्थात युग पुरूष जो काम करे वह शालीन है, नकलचोर आदमी करे तो वह अश्लीलहै। यह हमारी भारतीयता की अश्लीलता की कसौटी है।
विदेशों मंे ऐसा नहीं हैं। भारत में अश्लीलता में अश्लीलता नहीं है। हमारे यहां शरीर मेंअश्लीलता नहीं है, बल्कि मन में अश्लीलता है। हमारे भारतीय कानून में भी समाज, सभ्यता,
संस्कृति के अनुरूप ही अश्लीलता को परिभाषित किया गया है।
‘धारा 292 भारतीय दंड विधान के अनुसार किसी पुस्तक, पुस्तिका, कागज, लेख,
रेखाचित्र, रंगचित्र, रूपर्ण , आकृति या अन्य वस्तु अश्लील समझी जायेगी, जब वह-
कामोद्दीपक है
।कामुक व्यक्तियों के लिए रूचिकर है
।समग्र रूप से व्यक्तियों को दुराचारी बनाये।
भ्रष्ट बनाये अर्थात् कामुकला का बोध कराये।
लेकिन इसके अपवाद के अंतर्गत लोकहित में विज्ञान , कला, साहित्य, विधा के
उद्देश्य से प्रकाशित वस्तु अश्लील नहीं है। सद्भावपूर्वक धार्मिक प्रयोजनों के लिए रखा या
उपयोग की वस्तु अश्लील नहीं है।
प्राचीन स्मारक,पुरातत्वीय स्थल, मंदिर की मूर्तियां , मूर्तियों के प्रवहण में लाये जानेवाले पत्थर, रथ आदि अश्लील नहीं है ये कानूनी रूप से अश्लीलता में नहीं आते है। इसलिएमेरे मत से फैशन शो, मॉडलिंग भी अश्लीलता की कोटि में नहीं आना चाहिए।
हमारे यहां पर शारीरिक अश्लीलता न होकर मन में बसी अश्लीलता है। वास्तविकअश्लीलता ही है। मन में बसी अश्लीलता को हम फिल्मों , कैबरे, नाईट क्लबों में देखते हैं,खोजते रहते है। इसलिए हमें खजुराहों में बसी सूर्य-चंद्रमा की रोशनी में चमचमाती मूर्तियों सेकोई शिकायत नहीं हैं । भगवान के सहारे पर खडी खुले आम संभोगरस, कामुकता रसबरसाती मूर्तियों में हमें कोई अश्लीलता नजर नहीं आती है। यह हमारी अश्लीलता की कसौटी
पर खरी उतरती है।
जबकि आज नवविवाहित जोडे खजुराहों में पूजा-अर्चना करने नहीं जाते है, वे शादीके तुरंत बाद भगवान दर्शन की इच्छा भी नहीं रखते हैं। तब भी हम उन्हें हनीमून मनानेखजूराहांे जाने को प्रेरित करते है।छोटे बच्चों को घर छोडकर खजूराहों जाते है।क्यों ? इनप्रश्नों के उत्तर में हमारी सभ्यता निरूत्तर है।
लडके की शादी के बाद घर वाले कमरे में पहले दिन दूध रखते हैं, वह अश्लीलता
नहीं है ? उसे घर के सब लोग चंदा एकत्र कर हनीमून पर भेजते है, वह अश्लीलता नहीं है ?नवविवाहितों के एकत्र होते ही सब घर के सदस्य कमरा खाली कर देते हैं, उनको भरी दोपहरीमें बंद कमरे को ताका जाता है, छोटे-बडे सब मिलकर सुहागरात की सेज सजाते हैं। क्या यह
सब अश्लीलता नहीं है ?
फिर अश्लीलता क्या है ? हम घर में बंद कमरों में जो देखते हैं, उसे जब बाहर खुलेआम देखते हैं तो सहन नहीं कर पाते हैं और उसे अश्लील बोलने लग जाते है घर में हिम्मतनहीं पडती है। धर्म से डर लगता है। पाप, नर्क, अधर्म के डर से अश्लील नहीं बोल पाते हैं। यही कारण है कि आलिंगनबद्ध , प्रेमी-प्रेमिका को हम लैला -मजनू कहते हैं, नहीं। हनीमूनके जोडे को ढोला-मारू बोलते है, लेकिन बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते है।नदी, तालाबों में नहाते जलतरंग पैदा करते जीजा-साली का खेल, स्वीमिंग करते,जिमनास्टिक करते, सर्कस में करतब दिखाते , तंग कपडों से ढका व्यक्तियों का शरीर अबअश्लील नहीं है, तब स्टेज पर संुंदरता, शरीर , दिमाग का प्रदर्शन करती बालाऐं कैसे अश्लील
हो जाती है।
सौंदर्य प्रसाधन केंद्रों में जाकर लडकियों द्वारा बाल बनवाना और स्कूल-कॉलेजों मेंहिन्दी-अंग्रेजी की समय सारणी की तरह अपने कष्ट के दिनों को खुले आम बताना क्याअश्लीलता नहीं है। लेकिन जब ये बातें फिल्म , दूरदर्शन पर दिखाई जाती है तो घोर समाजविरोधी होकर अश्लील हो जाती है। जबकि साहित्य और सिनेमा दोनों समाज का दर्पण हैं। जोसमाज में पहले घटता हैं, उसका प्रतिरूप हम इनमें बहुत बाद में मंथन के बाद देखते हैं।
हमारे देश में मन की अश्लीलता को तन में , और तन की अश्लीलता को मन में देखाजाता है। यदि अश्लीलता को अश्लीलता में देंखे तो विरोधाभास उत्पन्न न हो और हर शालीनवस्तु अश्लील नहीं दिखेगी। जहां तक धर्म का प्रश्न है तो उसमें हमारी इतनी अटूट श्रद्धा ,विश्वास,प्रेम है कि वह हमें कामोत्तेजक नहीं कर पाता है। इसलिए उसमें अश्लीलता नहींहै।
यह बात भी मानने योग्य है। परन्तु अन्य कार्य भी आज अश्लील नहीं है, जिन्हें हम सभ्यता, संस्कृति धर्म, परम्परा की आड में अश्लील बता रहे है। इसलिए हम अपनी सोच में परिवर्तनलाएं।
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