Saturday, August 15, 2009

तुलसी दास की नारी का नया रूप


तुलसी दास की नारी का नया रूप
जब भी नारी के संबंध में कोई बात चलती है तो उसे नीचा दिखाने के लिए लोग सीना ठोककर तुलसीदास का उलाहना देकर कहते है कि ढोल, गंवार, शूद्र पशु, नारी ये सब ताड़ना के अधिकारी।


कहने को तो हम लोगों ने कह दिया, लेकिन हम यह बात नहीं समझते है कि हम लोग जिस द्वापर और त्रेता युग की बात कर रहे है। जब मनुष्य के पास पहनने के वस्त्र नही थे, वह वृक्ष कीछाल लपेटता था, कंदमूल, घास खाता था। घास-पूस के झोपड़े में जीवन यापन करता था। आज जबकि हम इक्कीसवीं सदी के द्वार पर खड़े है नारी स्कूल, कॉलेजों दफ्तरों से एवरेस्ट पर पहुंच गयी है तब हम यह बात उस नारी के लिए कही थी जो घरकी चहारदीवारियों में सात पर्दाे के बीच कैद घुट घुटकर जीवन जीती थी। वह अशिक्षित थी तभी तो उसे तुलसीदास ने गंवार के साथ रखा था।


परंतु आज परिस्थितियां बदल गयी है। नारी बहुत शिक्षित हो गयी है। तुलसीदास के समय नारी समाज के सबसे निम्नतर वर्ग शूद्र के समान उपेक्षित थी। उसकी न तो कोई बात सुनी जाती थी न ही मानी जाती थी। उसका काम सिर्फ बच्चे पैदा करना और परिवार का लालन पालन करना था। आज की तरह जीवन के हर क्षेत्र में उपयोगी नारी उस समय नहीं थी। तभी तो तुलसीदास ने उसे शूद्र के समान मान लिया है।


 इसी तरह तुलसीदास केे समय की नारी मां बाप पर आश्रित थी। उनकी मर्जी के बिना वह कुछ नहीं कर सकती थी।उनकी इच्छा ही उसकी इच्छा थी। वह उस जानवरके समान थी। जिसका मालिक उसे किसी भी खूंटे में बांध सकता था। उसका विवाह बिना उसकी मर्जी से किसी से भी कर दिया जाता था। चाहे उसका पति बूढ़ा हो या बहुविवाही हो चोर उचक्का शराबी कोई भी हो घरवालों की मर्जी होती थंी परंतु आज नारी को डा0 अम्बेडकर द्वारा पेश किए गए हिंदू कोड बिल से अधिकार प्राप्त है। वह पुरूषों के बराबर हकदार है। उसकी इच्छा का सम्मान किया जाता है उसे पशु की श्रेणी में रखना अपना मजाक उड़ाना होगा।

मजबूत आधार:- तुलसीदास के समय की नारी धन उपार्जित करने में असफल थी। घर की आय में आर्थिक रूप से उसका कोई योगदान न था। चूल्हा- चौका के सिवा वह कुछ जानती भी नहीं थी। इसलिए तुलसीदास ने उसे ढोर के समकक्ष रखा था। नारी जबकि आज अपने पैरों पर खड़ी है। कारखानों, दफ्तरों हवाईजहाज, रेल आदि में नारियां काम कर रही है। स्कूल कॉलेजों मे ंसफलतापूर्वक पड़ा रही है। मेरे कहने का मतलब यह है कि वह आर्थिक जीव ढोर नहीं रह गयी है। वह अब बहुत होशियार कार्यशील पुरूषों के समान साम्थ्र्यवालीहो गयी है। आज कितनी नारियोंको अपने पिता के रिटायरमेंटके बाद घर को चलाना पड़ रहा है। विवाहितें अपने घर को मजबूत आर्थिक आधार प्रदान कर रही है।


पूर्वाग्रह ग्रसित
इन सब बातों से स्पष्ट है कि तुलसीदा के समय की नारी के समान आज की नारी नहीं है। आज नारी अशिक्षित नहीं है। फिर भी उसे गंवार क्यों कहा जाए न ही वह समाज में उपेक्षित है जो उसे शूद्र कहा जाए। क्योंकि उसे बिना समाज में कोई कार्य सम्पन्न नहीं हो रहा है। नारी बहुत कुछ कर रही है। उसे पशु के समतुल्य समझना बेईमानी है।


अब नारी अर्कमणय भी नहीं है। वह परिवार के लालन पालन के साथ बहुत कुछ करना जानती है। फिर उसे ढोर समझने की गलती क्यो की जाए। ये सब बातें हम पूर्वाग्रह से ग्रसित शिक्षित वैज्ञानिक युग के राकेट मे ंयात्रा करने वाले आधुनिकतम मनुष्य के समझ में नहीं आ रही है। नारी को ढोर , गंवार शूद्र पशु के साथ न रखकर शिक्षित होशियार, कार्यशील, सम्मानीय लोगों की श्रेणी में रखा जाए। वैसे मेरी एक बात समझ में नहीं आ रही है कि तुलसीदास ने नारी को ढोर, गंवार , शूद्र, पशु के समान ताड़ना देने का अधिकारी क्यों बताया र्षोर्षो शायद वे भी पुरूष प्रधान समाज में पूर्वाग्रह से ग्रसित रहे होगें।

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